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वसुर्विशति स्तोत्र
पाठ- १९
"वियोगिनीच्छन्द"
हे जिन ! आप जरा विहीन, ज्ञान ज्योति स्वरूप आत्मा को प्रतिपादित करने वाले हो | यह स्वयं अपनी ही प्राकृति से परिपूर्ण अजेय ज्ञान शक्ति से भरा है। यह आत्मा का अत्यन्त विलक्षण, आश्चर्यकारी, सत्यस्वरूप है । हे प्रभो आप निश्चय व्यवहार अथवा द्रव्य-पर्याय रूप उभय दृष्टि से ज्ञातव्य हैं ।। १ ।।
यह आत्म तत्त्व पराश्रित नहीं है, शून्यरूप भी नहीं है तथा अन्य पदार्थान्तरों से मिश्रित भी नहीं है, ऐसा आपका सिद्धान्त सिद्ध करता है । फिर है कैसा ? अपने ही असंख्यात प्रदेशों के द्वारा खचित-निर्मित, उन्हीं रूप है । वस्तु स्वयं उन्हीं से तन्मय हुआ अपने अस्तित्व से सिद्ध है ॥ २ ॥
इस प्रकार असंख्यात प्रदेशी होकर भी अमूर्त व एक स्वभावी आत्मा है | परन्तु इस प्रकार स्वाभाविकरूप से उदय को प्राप्त होकर भी अनेकों विशेषणों से शोभायमान होता है । अतः आत्मनिर्भर होते हुए भी आप पुद्गल के साथ संयोग कर भेदरूपता भी उपदिष्ट करते हो || 3 ||
हे ईश ! पुरुष - आत्मा 'चित्' इस स्वाभाविक विशेषण स्वरूप को धारण कर अपने ही स्वानुभव - संवित्ति के बल से दीप्तिमान हुआ, भास्वर होता है । अपने ही चेतना स्वरूप में व्याप्त हुआ निर्विरोध सिद्ध हैं । अचेतन पौद्गलिक कर्म से सम्मिश्रित हुआ अनेक भेद रूप समुन्नत हुआ प्राप्त होता है ॥ ४ ॥
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