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यतुविशति स्तोत्र
तत्त्व सदैव त्रैकालिक सत्ता सम्पन्न होता है । आत्मा भी तत्त्व होने से त्रिकालवी सना लिए है । जो सामान पहले पूर्व पर्याय में था, वहीं आगे भविष्य में अन्य पर्याय रूप होगा तथा वही अपने स्वभाव परिणमन से वर्तमान में वर्तन कर रहा है । यही अकाट्य, अबाध सिद्धान्त है । जी कि प्रत्येकवस्तु के सदृश आत्म तत्त्व भी अपने द्रव्य, गुण, पर्यायों से अभिन्न रहते हुए त्रैकालिक पर्यायों में परिणमन करते हुए भी अपने शुद्ध स्वरूप के साथ अन्वयरूप से वर्तन करती है । तीनों कालों से संकलित होते हुए भी अपनी प्रकृति का उल्लंघन नहीं करती ।। २३ ।।
आत्म तत्त्व अपने ही शुद्ध स्वभाव में विलीन रहते हुए सतत एक अविनाशी ज्ञानधन में प्रत्यक्ष प्रकाशित होता है तथा निजस्वभाव रूप अवयवों, अनन्तपर्यायों में मिश्रित होकर भी एक, अविनाशी, अखण्ड, ज्ञानधन ज्योतिरूप प्रत्यक्ष भासता है । तथैव अपने अन्तरंग स्वभाव भूत अनन्त दर्शन, अनन्त सुख, अनन्तवीर्य में तन्मय होकर अनन्तचतुष्टयरूप अनेक विशेषों से तन्मय हुआ एक भी अनेकरूपों को लिए-अवगाहित कर एक रूप से उच्च रूप उद्भासित होता है | आत्मा अनन्त पर्यायों का पिण्डरूप एक है क्योंकि इन सबको प्रकाशित करने वाली एक मात्र ज्ञान प्रभा ही है ।। २४ ।।
___ भो स्वामिन् ! आपका आत्मत्व अनेकों विरुद्ध धर्मों के द्वारा अन्योन्य में अवगाहित होकर भी आपके स्याद्वादसिद्धान्त द्वारा नाना रूप वैभव सम्पन्न है | तो भी एक, नित्य अपने ही स्व तत्त्व स्वरूप परायण, कथंचिद् अत्यन्त अगाधरूप में अवगाहन करता है | आप इसी स्वभाव में अवस्थित हो अवभासते हैं । इस प्रकार निज में अवगाहन, अवग्राही शक्तियों से सम्पन्न अद्भुत राजते हो || २५ ।।
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