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चतुर्विंशति स्तोत्र पाठ-१८
"मत्तमयूरच्छन्द" प्रारम्भ से वह आत्म ज्योति द्वयात्मक है । कर्म आत्मा की संयोगी दशा होने से अत्यन्त अद्भुतकिले में निहित है ! बन्दीखाने में बन्द हो रही थी। ज्ञानशक्ति के उत्तेजित योग-संयोगदशा असिद्ध दृष्टिगत हुची । उसी प्रकाशमान ज्योति से महामोहाधंकार को ध्वस-नष्ट कर दिया । निर्दयता-कठोरभाव से अन्तःकरण को भेदनकर स्व तत्त्व को साक्षात् प्रकट किया । इसी अनन्त प्रकाशमयी तत्त्व,मैं आप में देखता हूँ || १ ||
आपका यह एकरूप अनेक पर्यायों को अपनी महिमा में सन्निहितकर एकरूप प्रतिभासित होता है | आपके इस अगम्य महिमा युक्त आत्मतत्वको जो अनेक पर्यायों में एकत्व लिए भावात्मक आत्मैक रूप है, इसे सामान्य व्यक्ति नहीं समझ सकता । अपितु जिसकी सूक्ष्मतत्व निरीक्षण निष्णात बुद्धि है उसका ही यह आपका एक तत्त्व विषय हो सकता है । अभिप्राय यह है कि सामान्य-विशेष धर्मों के स्वरूप का विशेष ज्ञाता ही समझ सकता है ॥ २ ।।
हे जिन! आपके सिद्धान्त में अपने विशेषों (पर्यायों) के बिना अकेला सामान्य प्रतिभासित नहीं होता । इसी प्रकार सामान्य विहीन केवल विशेषों का भी अस्तित्त्व प्रतिभासित नहीं होता । अतः जो सामान्य तत्व प्रकटित होता है, वही विशेष स्वरूप भी है । सामान्य-विशेष एक आत्मतत्त्वाथय से ही रहते हैं । क्योंकि आपका सिद्धान्त सामान्य विशेषात्मक ही वस्तु तत्व स्वीकृत करता हैं । जहाँ सामान्य है, वहीं विशेष भी रहते हैं सापेक्ष दृष्टि से || ३ ||