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. चतुर्विशति स्तोत्र
एकान्त से यदि स्याद्धाद का आश्रय बिना उभय धर्मी की अवस्थिति तत्त्व में स्वीकार की जायेगी तो निश्चय ही दोनों में विरोधी संग्राम होगा | तथा दोनों का ही विसंवाद होने पर अभाव ही सिद्ध होगा । अतः विधिनिषेध की व्यवस्थार्थ स्यात् शब्द लाञ्छित स्याद्वादी प्रणाली ही अवश्य स्वीकार करनी होगी ।। २२ ।।
'स्यात्' कार का आश्रय लेने पर ही विधि, निषेध के साथ गाढ़ मैत्री भाव चाहती है । क्योंकि शब्दागम विधि-निषेध रूप धर्मों से ही कार्यकारी और यथार्थ समीचीन तत्त्व प्रतिपादक प्रसिद्ध है । वह इसी मैत्री भाव से स्व और पर शक्तियों को सुरक्षित रखता है । अन्यथा निजार्थ का भी प्रतिपादक नहीं हो सकेगा |॥ २३ ॥
इस प्रकार एक ही वस्तु में सदसद् रूप विधि, निषेध धर्मों को नियमित रूप से स्याद्वाद सिद्धान्त में ही अविरुद्ध सिद्धि होती है । क्योंकि विवक्षित रूप से सत् एक को सिद्ध कर अन्य असत् धर्म को भी जीवित रखता है । इस प्रकार का सामर्थ्य या क्षमता स्यात् शब्द में ही निहित है । अतः सत् अपेक्षा वस्तु एक और परापेक्षा अनेक सिद्ध होती है || २४ ।।
स्व द्रव्यापेक्षा विधिरूपता और पर द्रव्यापेक्षा निषेध रूप हैं । यह स्व द्रव्य क्षेत्र, काल और भावापेक्षा विधि तथा पर द्रव्य, क्षेत्र, कालाभावापेक्षा निषेधपना स्पष्ट और प्रत्यक्ष सिद्ध होता है । यही मुख्य, गौण विधि-नियम तत्त्व सिद्धि का उत्तम, उत्कृष्ट और यथार्थ है । इस प्रकार की स्वशक्ति को स्वयं शब्द डंके की चोट से घोषित करते हैं । तथा निर्वाध वस्तु स्थिति को नियमित किये हुए हैं । यह भेरी ताड़ना करते हुए, शब्द स्वयं घोषणा करते हैं || २५ ॥
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