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चतुर्विंशतिस्तोत्र
सम्यक्दर्शन और ज्ञान से लबालब परिपूर्ण आपका आत्मतत्त्व, स्वच्छन्द रूप से अशेष पदार्थों में प्रवेश करता हैं अर्थात् ज्ञात कर लेता है । परन्तु तो भी अपनी ही असीम महिमा में निमग्न हुआ, अचल, अडोल हुआ बिहार करता है । अभिप्राय यह है सम्पूर्ण विश्वीय पदार्थ अपने अपने स्वरूप से आपके ज्ञान में झलकते रहते हैं । आपके स्वरूप में प्रविष्ट नहीं होते ।। ९ ।।
हे जिन ! आपके असीम, अगाध, अपरिमित निर्मल स्वच्छ ज्ञान उदधि में सारा विश्व सब ओर से तैरता रहता है । जिस प्रकार रत्नाकर में मगरमच्छ, मछली, घड़ियाल आदि जीव जन्तु तैरते रहते हैं । परन्तु सागर तो अपनी ही जल कल्लोलों में ही सन्निविष्टि रहता है । इसी प्रकार आपके ज्ञानोदधि में अशेष विश्व ज्ञानप्रभा में विभासित होता रहता है पदन्तु आपतो अपने ही अनन्तसुखामृत में तन्मय रहते हैं ॥ १० ॥
संसार में भरे हुए अनन्त विकल्प भयंकर जालों को ज्ञात करने वाली अनन्त शक्ति उदय को प्राप्त होती है । यह शक्ति अनन्त भुवनों को विवेचन करने में समर्थ होती है । यह सामर्थ्य ज्ञान के स्वभाव के प्रकटीकरण के साथ ही जाग्रत हो जाती है । जिस प्रकार सूर्योदय के साथ ही उसका प्रताप और प्रकाश युगपत् प्रकट होता है ॥ ११ ॥
स्वाभाविक नियम हैं, एक द्रव्य अन्य द्रव्यरूप परिणत नहीं हो सकता | यही विधि - प्रकृति का विधान हैं । यही कारण है कि स्व-पर का भेद - विभाग करने वाला ज्ञान अपनी असीम महिमा में नियुक्त रहते हुए ही अशेष पदार्थगत व्यापक होकर भी उनमें मिश्र होकर एक रूप नहीं होता ज्ञान सदैव ज्ञान - चेतनस्वरूप ही रहता है || १२ ||
सामान्यापेक्षा तत्व में भेदाभेद अवस्था एक साथ रहकर भी विशेषापेक्षा सभी शक्तियाँ भिन्न-भिन्न ही रहती हैं। ये दोनों ही शक्तियाँ
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