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चतुर्विंशति स्तोत्र
कष्टोंरूपी क्षार जल प्रपूरित है । आपने अपने अन्तिम मोक्ष पुरुषार्थ से इस रचना को विपरीत बना लिया, आपने अपने स्व विस्तृत उज्ज्वल.
अतिनिर्मल ज्ञान सागर से परिपूर्ण रूप से भर लिया । अभिप्राय यह है कि यद्यपि संसार "दुःखमेय वा" कहा है परन्तु आत्मसुख मुक्ति भी संसार पूर्वक ही होती हैं | चाहिए समीचीन भेद-विज्ञान युत् सम्यक् चरित्र । यही आपके इसी प्रयोग ने निज में निज को प्रकट कराया ।। ५ ।।
हे विभो! मिथ्यात्व-अज्ञानभाव अनादि से चला आया है इसकी फाई सीमा नहीं है । इसी आम तय में जसी विशुद्ध ज्ञान भी भरा है । शुद्धज्ञान-भेद-विज्ञान द्वारा ज्ञात कर आपने अपने आत्मतत्त्व को उस असीम, निर्मल शुद्ध ज्ञान से भरित प्रकट किया । है प्रभो! शुद्ध ज्ञान चेतना आप में स्वाभाविक रूप से प्रकाशमान हो रही है ।। ६ ।।
अब यह ज्ञानचेतना अनवधि है और भविष्य में ही सतत अनन्त काल पर्यन्त असीम ही बनी रहेगी | आप तद्रूप ही प्रकाशित हो रहे हो । यद्यपि यह प्रकाशपुञ्ज स्वयं में सीमित है । क्योंकि आत्मा असंख्यात प्रदेशी है और उसी में सन्निहित यह शुद्ध ज्ञान चेतना है । तथाऽपि अपनी ज्योतिर्मय किरणों द्वारा यह ज्ञान पुञ्ज सर्वव्यापी है । अर्थात् विश्व के अशेष द्रव्य-गुण-पर्यायों को विषय करता है - जानता है । अतः आप ऐसे अद्भुत ज्ञान वैभव सम्पन्न हो || ७ ||
सम्पूर्ण कर्मों के क्षय से उत्पन्न सहज का स्वभाव रूप परिणत तत्त्व अपने स्वभाव से परित्यक्त नहीं होते । यही कारण है कि सहज ज्ञान का रोधक ज्ञानाबरणी कर्म निर्मूल-चूल नष्ट हो जाने से आपका अनन्त ज्ञान अनन्तवीर्य से सुरक्षित हुआ पूर्ण प्रताप से शोभायमान हैं ।। ८ ।।
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