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चतुर्विंशतिस्तोत्र
समीचीन-उत्सर्गमार्ग से पूर्णतः आप में एक रूपता ही है | परन्तु आपके अनन्तज्ञान तेज में जगत व्याप्त होता है यह अपवाद दृष्टि हैं इसी अपेक्षा से भेद पना अवभासित होता है । निश्चय से शुद्ध स्वभावी आपकी महिमा तद्अलद्रूप ही प्रत्यक्ष प्रतिभासित होती है ॥ २२ ॥
इस प्रकार द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयों की अपेक्षा हे देव ! आपका सिद्धान्त बहुभेद रूप होकर भी एकदम से वस्तु तत्त्व को व्यवस्थित करता है और एक अखण्डरूप से ही अनेक रूपता की सिद्ध करता है । अभिप्राय यह है कि पदार्थ में एकानेक रूपता एक दूसरे की अपेक्षा से ही व्यवस्थित होता है । अनेकान्त से ही वस्तु स्वरूप अपने अस्तित्व को व्यवस्थित रखती है | इस प्रकार आपके सिद्धान्त की महिमा सतत सुदृढ़, निश्चल घटित होती है । अर्थात् सर्वमान्य सिद्ध हैं ॥ २३ ॥
इस प्रकार आपका यह उभयात्मक सिद्धान्त निश्चित प्रमाणिक और अचल है तथा परमानन्द भरित है । जिस प्रकार इक्षुदण्ड को यंत्र द्वारा पेलने पर हे देव! वह अपने स्व रस से परिपूर्ण स्वभाव से उछलता प्रकट होता है उसी प्रकार प्रभो आपके सिद्धान्त को मैं अपनी प्रज्ञारूपी यंत्र से विवेचित कर अपने ज्ञानान्द स्वभाव को प्रकट करूँगा, यही मुझे शक्ति प्रदान करें || २४ |
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हे प्रभो! आपके चरण कमलों के आश्रय को प्राप्त मेरी अज्ञानतमभरी मोहरूपी रात्रि नष्ट हो, ज्ञान रवि जाग्रत हो । हे जिन आपकी परमभक्ति से आप ही की अंक में प्राप्त हूँ । स्वामिन् कृपाकर मुझे ज्ञानशक्ति प्रादन करें इसी भावना से स्तोत्र रचना की है || २५ ||
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