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___ चतुर्विशांत स्तोत्र
संसारावस्था में परपरिणति रूप परिणमन करता हुआ सुज्ञान अज्ञान रूप धारण कर मलिन हो रहा था | यदि इस (आर्हत्) दशा में भी वह उसी प्रकार मलिनरूप हो तो हे जिन ! आप भी कर्तृत्व बुद्धि संलग्न हो आकुलता को प्राप्त कर अनन्त सुखसम्पन्न किस प्रकार होते ? नहीं होते । क्योंकि सदैव पर्यायों की प्राप्ति में ही लगे रहते । परन्तु ऐसा नहीं है । कारण आप वीतराग है । राग-द्वेष का अभाव होने से आपकी अशेष पर्याय वीतरागभाव सम्पन्न हैं, जो पूर्ण आम्रब का निरोध करते हैं । अतः संवर निर्जरा द्वारा आत्म विशुद्धि ही वृद्धिंगत हो रही है || २३ ॥
है जिन ! आपके द्वारा संयोग-वियोग जन्य दुःख परम्परा सर्वथा विनष्ट हो गई । यह अवस्था ही आपके अनन्त सुख की ज्ञापक है । परम वीतरागता में होने वाली शुद्ध परिणतियाँ निश्चय से अनवरत आपके चिरस्थायी अनन्त सुख का ही द्योतन कर कर रही हैं । अर्थात् शुद्ध व्यंजन व अर्थ पर्यायों का परिणमन अखण्ड शुद्ध सुखस्वरूपता की परिचायक हैं ॥ २४ ॥
हे प्रभो ! आपकी सम्पूर्ण परिणतियों की पूर्ण विकासी कलाएँ निरन्तर अनन्तकाल पर्यन्त इसी प्रकार स्व स्वभाव में ही अवस्थित रहेंगी । हे जिनेश्वर यदि मैं भी आपकी इस परम वीतराग, सुनिर्मल और अविचल परिणति में संलग्न हो जाऊँ तो ये कषायरूपी मल मुझको भी ग्रसित नहीं कर सकतीं । अर्थात् मलिन करने में समर्थ नहीं हो सकती | हे जिनेश्वर मेरी यही भावना है कि आपके समान ही अपना विकास कर चिरसुख का अनुभव करूँ | आपके आदर्श में निजरूप निहार उसमें ही निमग्न होने से आत्मा में आत्मा का निजरूप प्रकट हो यही भावना है || २५ ॥
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