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चतुर्विंशति स्तोत्र
वीतरागी मुनिराज समता सुधा के स्वाद के ज्ञाता होते हैं । वे बाह्य उपसर्ग, परीषहों के आघातजन्य महादुःख से युक्त भी आत्मीय सुखनिष्ठ रहते हैं । अर्थात् वाह्य अचेतन जन जन्य दुःखों से वे कभी भी वावभाव न नहीं होते । जिस प्रकार दुग्धरस पान का ज्ञाता उग्र अग्नि तप्त होने पर भी वह दुग्ध का ही पान करता है विषाक्त रस का नहीं । अथवा विष पान करता हुआ भी पयपानरसज्ञ उसे दुग्धरस का ही अनुभव करता है । वाह्य पीड़ा की चिन्ता न कर विडाल गरम-गरम दूध पान करने में ही निमग्न रहता है | वाद्य विपत्ति की चिन्ता नहीं करता ।। २३ ।।
सदैव निरन्तर, परिपूर्ण आत्म संवेदन की मूर्ति स्वरूप आप ही हैं । क्योंकि पूर्ण प्रयास से प्रकट कर अपने आत्मवीर्य के अतिशय से उसे उत्पन्न किया है । सम्पूर्ण कर्मकलङ्क को आमूल चूल नष्ट करने में अन्य कौन समर्थ हो सकता है ? आपके अतिरिक्त अन्य कोई भी उस कर्मकालिमारूप पंक का प्रक्षालन करने में समर्थ नहीं है । इसलिए आप ही आप्त हैं-सच्चे देव हैं | आप से अधिक अन्य कोई है ही नहीं । सर्व दोष (अठारह) दोषों से रहित ही आप्त कहलाता है । उन दोषों का आपने ही नाश किया है | अतः आप ही अर्ह-पूज्यदेवाधिदेव है ।। २४ ।।
हे जिन ! एक मात्र आप ही अपने ज्ञायक स्वभाव से सम्पूर्ण शब्द ब्रह्म के वितान के शिखर को ज्ञात करने में समर्थ हुए हो । क्योंकि वह सर्व व्यापी ज्ञान आप में ही प्रकट प्रतिभासित हो रहा है । पूर्ण क्षायिक निरावरण अनन्त केवलज्ञान अन्यत्र दृष्टिगत नहीं होता । अतः संसार में एक मात्र आप ही ब्रह्म हैं । आपके अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं । आपके सर्वज्ञपने से सर्वहितोपकारिणी दिव्य वाणी आपसे ही उत्पन्न हुई है । अतः आप ही स्वयं शब्दब्रह्म स्वरूप हैं । अन्यशब्दाद्वैत वादी या ब्रह्माद्वैतवादियों के एकान्त सिद्धान्त में निरूपित शब्दब्रह्म समीचीन नहीं है || २५ ।।