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आरम्भ-परिग्रह का त्याग, भोगोप भोग की वस्तुओं का प्रमाण एवं रात्रि जागरण करना चाहिए। आत्म परिणामों को निर्मल एवं विशुद्ध रखने का प्रयास मुख्यता आवश्यक है। कषाय एवं रागद्वेष का त्याग करना चाहिए।
परम पू. क्षु० राजमात माताजी में १२३४ उपवास के लक्ष्य में राहतो की पुस्तक का प्रकाशन कर व्रतों की परम्परा को बनाये रखी है।
ज्ञान दान को एक महान दान माना है जो कि ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम के कारण है।
आशा है कि श्रावक एवं श्राविकाएं मुनि एवं आर्यिकाएं अपने जीवन को उन्नत बनाने में साधक व्रतों, उपवासों के माध्यम से अपनी आत्मा का उत्थान करें। आत्मा की उन्नति शील बनाने के लिए तपस्या ही अनवार्य है। तप के द्वारा हम परमात्मा पद प्राप्त कर सकते हैं। चलते-फिरते तपस्वियों का शत्-शत् वन्दन अभिवन्दन।
ब्र. पं. धर्मचन्द शास्त्री
प्रतिष्ठाचार्य
नोट :यह व्रत भाद्रपद की सुदी पडवा से आरम्भ किये जाते हैं। यह व्रत श्रावक-श्राविका अपनी शक्ति के अनुसार कर सकते हैं। उत्तम विधि तो उपवास करना है, मध्यम विधि में एक बार पानी ले सकते हैं तथा जघन्य में एक या दो रसों से एक बार भोजन (शुद्ध मयोदित) ले सकते हैं।
जो प्रावक-श्राविका बड़ी जाप नहीं कर सकते तो वे छोटी जाप भी। कर सकते हैं।
मंत्र :- ॐ हीं असिआउसा चारित्रशुद्धि व्रतेम्योनमः ।