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सम्पादकीय अनादि काल से परिभ्रमण करने वाले संसारी प्राणियों की शान्ति का एक मात्र उपाय समीचीन धर्माचरण यह धर्माचरण अनेक प्रकार से किया जा सकता है किन्तु इसमें तप की महत्ता सर्वोपरि है, जैसे मक्खन में से घी निकालने के लिए बर्तन गरम करना आवश्यक है उसी प्रकार पापों से आत्मा को पृथक् करने के लिए शरीर को तपाना आवश्यक है। पूज्यपाद स्वामी ने स्वार्थ सिद्धि में लिखा है कर्मक्षयार्थ तप्यत इति तपः अर्थात् कर्म क्षय के लिए जो तपा जाता है उसे तप कहते हैं। तप इस प्रकार के आचार्यों ने बताये जिस प्रकार समुचित अग्नि का ताप स्वर्ग को सुसंस्कृत करती है उसी प्रकार बाह्यभ्यतर तप की ताप आत्मगुणों को सुसंकृत करती है।
यह व्रत मुनि, आर्यिका, श्रावक श्राविका दोनों ही अपनी आत्म शुद्धि के लिए पालन करते हैं और उपवास के दिन एक-एक मन्त्र का जाप करते हैं। उद्यापन के समय गृहस्थ बड़े ही उत्साह से मण्डल मांडकर इसकी धर्म प्रभावना के साथ पूजन करते हैं। आत्म विशुद्धि को बढ़ाने वाला यह विधान बड़ा ही उपयोगी है।
चारित शुद्धि व्रत तेरह प्रकार के चारित्र के १२३४ अंग हैं, अतः १२३४ उपवास करना चाहिए। एक उपवास और एक पारणा के क्रम से करें तो यह व्रत ६ वर्ष १० माह और ८ दिन में पूरा होता है। श्रावक अथवा प्राविकाएं उपवास के दिन जिनेन्द्र भगवान का अभिषेक करके पूजा करें तथा मंत्र की जाप त्रिकाल करें।
मंत्र :- ॐ हीं असिआउसा चारित्रशुद्धि प्रतेभ्योनमः । व्रत के दिनों में अभिषेक, पूजन आरती स्त्रोत पाठ, स्वाध्याय जाप्य व आत्मचिन्तन अवश्य करना चाहिए । ब्रह्मचर्य व्रत का पालन तथा यथाशक्य