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विवक्षासे १२२ प्रकृतियां हैं । इनमेंसे सम्याग्मथ्यात्व और सम्यक्प्रकृति इन दोनोंका बन्ध नहीं होता है । क्योंकि इन दोनोंकी सत्ता सम्यक्त्व परिणामोंसे मिथ्यात्व प्रकृतिके तीन खंड करनेपर होती है । इसलिये अनादि मिथ्यादृष्टीकी बन्धयोग्य प्रकृतियां कुल १२० हैं । इनमेंसे मिथ्यात्व-गुणस्थानमें तीर्थकर प्रकृति, आहारक शरीर और आहारक अंगोपांग इन तीन प्रकृतियोंका बंध नहीं होता है । क्योंकि इन तीनोंका बंध सम्यग्दृष्टियोंके ही होता है । इस तरह पहले गुणस्थानमें ११७ प्रकृतियोंका बन्ध होता है ।
दूसरे सासादन गुणस्थानमें 'एक एकसौ ' अर्थात् १०१ प्रकृतियोंका बंध होता है । अर्थात् ऊपर कही हुई ११७ प्रकृतियोंमेंसे मिथ्यात्व, हुंडकसंस्थान, नपुंसकवेद, नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, नरकायु, असंप्राप्तामृपाटिकासंहनन, एकेन्द्रियजाति, विकलत्रय तीन, स्थावर, आताप, सूक्ष्म, अपर्याप्त
और साधारण इन सोलह प्रकृतियोंका बंध नहीं होता है। __ तीसरे मिश्रगुणस्थानमें ७४ प्रकृतियोंका बंध होता है । दूसरे गुणस्थानमें जिन १०१ प्रकृतियोंका बंध होता है, उनमेंसे अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, स्त्यान. गृद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, दुभंग, दुःस्वर, अनादेय, न्यग्रोध संस्थान, स्वाति संस्थान, कुब्जक संस्थान, वामन संस्थान, वज्रनाराच संहनन, नाराच संहनन, अर्द्धनाराच संहनन, कीलित संहनन, अप्रशस्तविहायोगति, स्त्रीवेद,
च० श०६