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इसी प्रकार किसी जीवने किसीसमयमें ज्ञानावरणादि कर्मोंके योग्य पुद्गलवर्गणाएँ ग्रहण की और वे द्वितीय तृतीयादि समयोंमें झड़ गई । अब उन वर्गणाओंकी भी जितनी संख्या और जितना उसमें स्निग्ध रूक्ष वर्ण गन्ध तथा उनका तीव्र मन्द मध्यम परिणाम था कालान्तरमें जब वह जीव उतनी ही संख्या और परिणामको लिए उन्हीं वर्गणाओंको ग्रहण करेगा तब एक कर्मपुद्गलपरावर्तन गिना जायगा । बीचमें अगृहीत मिश्र या मध्यगृहीत अनन्त बार ग्रहण करेगा परन्तु वह इसकी गिनतीमें न आयगा।
___--धर्मप्रश्नोत्तर। पृष्ठ १३० के ८९ नम्बरके पद्यका जो अर्थ किया गया है उसमें जो १६ दृष्टान्त दिये गये हैं वे अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानी, प्रत्या‘ख्यानी और संज्वलनके भेदोंके बतलाये गये हैं; परन्तु वास्तवमें ऐसा नहीं हैं । वे दृष्टान्त तीव्रता मन्दताकी अपेक्षा हैं सम्यक्त्व या चारित्र घातनेकी अपेक्षा नहीं । अर्थात् यह नहीं कि जो क्रोध पत्थरकी लकीरके समान होता है वह अनन्तानुबन्धी क्रोध है और जो हलकी लकीरके समान होता है वह अप्रत्याख्यानी क्रोध है; अथवा जो पाषाणके खंभके समान होता है वह अनन्तानुबन्धी मान है और जो हड्डीके स्तंभके समान होता है वह अप्रत्याख्यानी है; किन्तु तीव्रता मन्दताकी अपेक्षा क्रोध मान माया और लोभ इन चारों कषायोंके (चाहे वे अनन्तानुबन्धीसम्बन्धी हों चाहे प्रत्याख्यानी आदि सम्बन्धी) चार चार दृष्टान्त दिये हैं और इस तरह इन चारोंके १६ भेद बतलाये हैं । स्वाध्याय करते समय उक्त पद्यके अर्थमें इतना संशोधन कर लेना चाहिए ।
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