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(१२७) नर्क सुर्ग आठमैं निगोद नाहिं गाइए । सूच्छम नरक तेज वायुमैं न सासादन, भौनत्रिक पसुमैं न तीर्थंकर पाइए ॥ सब ही सूच्छम अंग कहे हैं कपोत रंग, कारमान देहको सुपेद रूप भाइए । विपुल मनपऊँ औ पर्म औधि सर्व औधि, ठीक लहैं मोख तातें इन्हें सीस नाइए॥८७॥
अर्थ-पृथ्वीकाय, जलकाय, अनिकाय, पवनकाय, केवली भगवानका परमौदारिक शरीर, छठे गुणस्थानवर्ती मुनिके प्रगट हुआ आहारक शरीर, नारकी जीवोंके शरीर और देवोंके शरीर इन आठ स्थानोंमें, निगोद जीव नहीं होते हैं । सूक्ष्म जीवोंमें अर्थात् पृथ्वीकाय, जलकाय, नित्यनिगोद और इतर निगोदके जीवोंमें, सातों नरकोंके जीवोंमें, अग्निकायके सूक्ष्म बादर जीवोंमें और पवनकायके सूक्ष्म बादर जीवोंमें-इस तरह इन चार स्थानोंके जीवोंमें सासादन गुणस्थान नहीं होता है । अर्थात् जीव सासादन गुणस्थानके परिणामोंको वहांतक नहीं ले जासकता है । भवनत्रिक अर्थात् भवनवासी देव, व्युत्तर देव और ज्योतिषी देव, तथा भोगभूमिया और कर्मभूमिया पशु इनमें तीर्थकरकी सत्ता सहित जीव नहीं जाता है । अर्थात् तीर्थकर नामकर्मका बंध जिसको हुआ हो, वह जीव भवनवासीदेव आदिमें जन्म