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________________ . ( ७८७ ) प्रर्षरछेर-२ इस मस्या को २ संख्या से जितने बार अन्तरमुबंषी कषाय-अनंत नाम संसार का है। गुणाकार करके जो विशिष्ट संख्या प्रावेगी उस संख्या परन्तु जो उसका कारण हो वह भी अनंत कहा जाता है, का उतन ही २ संख्या के प्रांकडद जानना जैसे सो यहां पर मिथ्यात परिणाम को अनन्त कहा गयाहै, ४ का अघच्छेद २x२-४) २ है। १६ का प्रर्धच्छेद क्योंकि वह अनंत संसार का कारण है, जो इस अनंत४ (२x२x२x२=१६) चार जानना (गा० ६२५. मिथ्यात्व के अनु-साथ साथ बंध उस कषाय को अनंतान१२६ देखो) बंधी कषाय कहते हैं, (मा० ४५ देखो) प्रया - काल विशेष जानना (गा० २०५ देखो) अपकर्ष कालमायु बंध होने के जो पाठ विभाग काल होते हैं वे अपरिवर्तमान परिणाम जो परिणाम प्रषिकरण =जिस स्थान में दूसरे (इतर) स्थान समय समय बढ़ते ही जावै अथवा घटते ही जावे ऐसे (प्राय) रहते हैं उसे अधिकरण कहते हैं। (गा० ६६० संक्लेश या विशुद्ध परिणाम अपरिवर्तमान कहे जाते हैं। देखो) 'मा० १०५। प्रधव बंध =जो भन्तर सहित बंध हो अर्थात जिस अपवर्तन घात - प्रायु कर्म के पाठ अपकर्षखों बंध का अंत पा जावे उसे अध्रुव बंध कहते हैं। (गा० (विभागों) में पहली बार के बिना द्वितीयादि बार में जो १०-१२३ देखो) पहले बार में प्रायु बंधी थी उसी की स्थिति की वृद्धि प्रमादि प्रहगल वध्य =जिस पूगल ट्रष्य को अभि. या हानि अथवा अवस्थिति होती है और मायु के बंध तक कभी भी कर्मत्व प्राप्त नहीं हुमा है अर्थात जिसको करने पर जीवों के परिणामों के निमित्त से उदयप्राप्त कभी भी जीवात्मा ने कर्म रूप ग्रहण नहीं किया है । उसे प्रायु का घट जाना उसको अपवर्तन धात (कदली घात) अनादि पुबगल द्रव्य कहते है। (गा० १०५ से १६० कहते हैं। गा० ६४३ देखो) देखो। ___ अप्रत्याख्यान कषाय== जो '' अर्थात् ईषत्-थोड़े से अनादि ष-अनादि काल से जिसके बंध का भी प्रत्याख्यान को न होने दे, अर्थात जिसके उदय से मभाव न हुभा हो। जीव धायक के व्रत भी धारण न कर सके उस क्रोध, अनुकृष्टिषय · अनुकृष्टि के गच्छू का भाग ऊर्वचय मान, माया, लोभ रूप चारित्र मोहनीय कर्म को अप्रत्यामें देने से जो प्रमाण हो वह जानना (गा० १०० से ६०७ ख्यानावरण कषाय कहते हैं । (गा . ४५ देखो) देखो) प्रस्पतर बंध पहले बहुत का बंध किया था पीछे अनुकृष्टिनीने और ऊपर के समयों में समानता थोड़ी प्रकृतियों के बंध करने पर अल्पतर बंध होता है। के खड होने को अनुष्टि कहते हैं। (गा० ६०५ देखो) (गा० ६६ देखो) मनुभागाध्यवसाय स्थान = जिस कषाय के परिणाम प्रवस्थित अंष-पहले और पीछे दोनों समयों में से कर्म बंधन में अनुभाग पड़ता है उस कषाय परिणाम समान (एकसा) बंध होने पर अवस्थित बंध होता है । को जानना (गा० २६० देखो) (गा० ४६६ देखो) भाग पंध= कर्मों के फल देने की शक्ति को प्रवक्तव्य बंध पहले मोहनीय कर्म का बंध न होते हीनता व अधिकता को अनुभाग बंध करते हैं। हये अगले समय में उसका बंध हो जाय तो उसे प्रवक्तव्य (गा० ८६ देलो) बंध कहते हैं । (गा० ४६६ देखो) अनेक क्षेत्र अनेक शरीर से रुकी हई सब लोक के विभाग प्रतिज्येष-जिसका दूसरा भाग न हो ऐसे क्षेत्र को अनेक क्षेत्र कहते हैं (गा० १५६ देखो) शक्ति के अंश को अविभाग प्रतिच्छेद कहते हैं। सो यह
SR No.090115
Book TitleChautis Sthan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAadisagarmuni
PublisherUlfatrayji Jain Haryana
Publication Year1968
Total Pages874
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & Karm
File Size16 MB
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