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________________ ( ७८ ) पर उलटे क्रम से कहा है, इसका सीधा क्रम-अविभाग प्राहारकद्विक-याहारक शरीर १, माहारक मंगोप्रतिच्छेद का समूह वर्म, वर्ग का समूह वर्गणा, वर्गणा का पांग १ ये २ स्पर्द्धक, स्पर्द्धक का समुह भूरा हानि गृण हानि का समह गिनी मरण-अपने शरीर की टल प्राप ही समूह स्थान ऐसा जानना चाहिये (गा० २२६) अपने अंगों से करे, किसी दूसरे से रोगादि का उपचार न करावे, ऐसे विधान से जो सन्यास धारण कर मरे उस स मरण को गिनी मरण कहते हैं। (गा० ६१) गुणाकार करने से जो संख्या आवेगी वही जानना । असाप्तावेदन य कम-जो उदय में प्राकर जीव को उच्छिष्टावलो = उदय न होते हुये बचा हुमा प्रथम शारीरिक तथा मानसिक अनेक प्रकार के नरकादि गति स्थिति के निषेक । जन्य दुःखों का 'वेदयति भोग करावे अथवा 'वेद्यते उत्तर धन प्रवधन शब्द देखो। अनेन' जिसके द्वारा जीवन दानों को नोगे वह उदय .. अपने अनुभाग रुप स्वभाव का प्रकट होना असाता वेदनीय कर्म है । (गा० ३३ देखो) अथवा अपने कार्य करके कर्मपने को छोड़ देना मागम भाव कर्म जो जीव कर्म स्थरूप के कहने। (गा. ४३६ देखो) माले मागम का जानने वाला और वर्तमान समय में उसी सदय व्युमितिउदय की मर्यादा जहां पूर्ण होता दास्थ का चिन्तवन (विचार) रूप उपयोग सहिल हो है और मागे उदय नहीं होता उस अवस्था को उदयउस जीव का नाम भावागम कर्म अथवा पागग भाव व्युञ्छित्ति जानना। कर्म कहा जाता है (गा० ६५ देलो) उबयावधि=उदय ध्युच्छित्ति को ही उदयावधि भावेश - मार्गणा को प्रादेश कहते हैं। कहते है। (गा० ६६० देखो) उबीरणा-यागामी उदय में पाने वाले निषकों को प्राधेघ-अधिकरण में जो दूसरे स्थान रहते हैं उवे नियत समय के पहले उदयावली में लाकर फलानुभव प्राधेय कहते हैं। देकर खिर जाना अर्थात बिना समय के कर्म का पक्व प्राबाबा काल कार्माण शरीर नामा नाम कर्म के होना इसको उदीरणा कहते हैं। (गा० २८१, १२९ उदय से योग द्वारा पात्मा में कर्म स्वरूप से परिमता देखो) हया जो पुद्गल द्रव्य व जब तक उदय स्वरूप (फल लिन बंधा हुमा कर्म बंध को उकेल कर दूर देने स्वरूप) अश्या उदीरणा स्वरूप न हो तब तक के उस नाश) करना उजना है। काल को पाबाधाकाल कहते हैं । (गा० १५५ देस्रो) उलन संक्रमण - अध: प्रवृत्त मादि सीन करारूप मायाम स्थिति बंध में जो समय का प्रमाण है परिणामों के बिना ही कर्म प्रकृतियों के परमाणुओं का उसी को प्रामाम जानना । अन्य प्रकृतिरूप परिणमन होना वह उद्वेलन सक्रमण है। प्राय कर्म जो जीव को नरकादि शरीर में रोक (गा०४१३ देखी) रक्वे जसे प्रायु कर्म जानना अथवा विवक्षित गति में उपपाव योग स्थान= उत्पत्ति के पहले समय में जो कर्मोदय से प्राप्त शरीर में रोकने वाले और जीवन के योग स्थान रहता है, वहीं जानना । गा० २१६ देखो) कारण भूत प्राधार को आयु कहते हैं। उपयोग--बाह्य तथा अभ्यन्तर कारणों के द्वारा प्राहारक चतुष्क = याहारक शरीर १, आहारक होने वाली यात्मा के चेतन गुण की परिगाति को उपयोग अंगों पांग १, आहारक बंधन १, आहारक संघात १ ये कहते हैं । ४ जानना। उपशम योग्यकाल-सम्यक्त्व प्रकृति और सम्यग्मि
SR No.090115
Book TitleChautis Sthan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAadisagarmuni
PublisherUlfatrayji Jain Haryana
Publication Year1968
Total Pages874
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & Karm
File Size16 MB
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