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________________ ( ७८६ ) १. द्रव्य--जो पहले प्रदेश बंधाधिकार में कहे हए ट्रेवों को पल्य के. प्रच्छेदों में घटाने से जो प्रमाण आवे समय प्रबर के प्रमाण बध प्राप्त कर्म पुद्गल समूह हैं। उतनी नाना गुण हानि राशि जाननी चाहिये । २. पिति प्रायात्र - उस समय प्रबच का जीव के ५. निषेकाहार अर्थात् को पुरण हानि-गुण हानि का साथ स्थित रहने का काल स्थिति अायाम है, वह स्थिति गुना प्रमाण निषेकहार होता है, उसका प्रयोजन यह है संख्यात पल्य प्रमाण है। कि निषेकाहार का भाग विवक्षित गुण हानि के पहले निषेक में देने से उस गुण हानि में विशेष (चम) का गुण हानि मायाम निषेकों में शलाकाओं का प्रमाण निकल पाता है। भाग देने से जो प्रमाण हो वह पुरण हानि भायाम का ६. अन्योन्याभ्यस्त राशि-मिथ्यात्वनामा कम में प्रमाण होता है गुण हानि का अर्थ कर्म परमारणों का प्राधा-आधा हिस्सा होना चाहिये। पल्य की वर्ग शलाका को प्रादि लेकर पल्य के प्रथम मूल पर्यत उन वगों का मापस में गुणाकार करने से भन्यो४. नाना गुण हानि--अन्योन्याभ्यस्त राशि की। न्याभ्यस्त राशि का प्रमाण होता है। इस प्रकार पल्य प्रर्धच्छेद राशियों को संकलित अर्थात जोडने से नाना की वर्ग शलाका का भाग पल्य में देने से मन्मोग्याभ्यस्त गुण हानि का प्रमाण होता है, इस प्रकार पल्य की राशि का प्रमाण होता है। वर्ग शलाका का भाग पल्य में देने से अन्योन्याभ्यस्त राशि इस तरह व्यादिकों का प्रमाण जानना (देखो गो० का प्रमाण होता है और पल्य की वर्गशलाका के अर्घ- कगा०६.२ से १२:) शान तोह प्रगुरुलघु चतुष्क-मगुरुलघु १, उपचास १, पर- तक उसका संक्रमण, उदीरणा, उदय या क्षय नहीं होता पात १, उच्छवास १ ये * अथवा अगुरु लघु १, उप- उस काल को प्रचलावली कहते हैं । (गा० १५६, ५१४ धात १, परमात १, उद्योत १, ये ४ जानना । (गो. क. देखो) गा. ४००-४०१ देखो) अषः प्रवृत्ति करणजिस कारण से इस पहले मगुरुलघुद्धि-मगुरुलधु, उपघात ये २ जानना । करण में ऊपर के समय के परिणाम नीचे के समय संबंधी अंगो-पांग दो पैर, दो हाथ, नितम्ब-कमर के पीछे भावों के समान होते हैं उस कारण से पहले करण का का भाग, पीठ, हृदय योर मस्तक ये पाठ शरीर में अंग। नाम 'प्रध: प्रवृति' ऐसे अन्वर्थ (मर्थ के अनुसार) नाम है और दूसरे सब नेत्र, कान वगैरह उपांग कहे जाते हैं। कहा गया है । (गा० ८६८ देखो) मोति कर्म-जीव के अनुजीवी गुणों का नाश प्रष: प्रवृत्ति संक्रमण बंघरूप हुई प्रकृतियों का नहीं करने वाले श्रायु, नाम, गोत्र और वेदनीय ये ४ अपने बंध में संभवती प्रकृत्तियों में परमाणुत्रों का जो कों को भवातिया कर्म कहते हैं । (गा० ६) प्रदेश संक्रमण होना वह अधः प्रवृत्ति संक्रमण है। . प्रबलावली कर्म बंध होने के बाद एक पावली (गा० ४१३ देखो)
SR No.090115
Book TitleChautis Sthan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAadisagarmuni
PublisherUlfatrayji Jain Haryana
Publication Year1968
Total Pages874
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & Karm
File Size16 MB
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