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________________ ७१५ । सकता, तथा जैसे एक ग्रंधा दूसरा पागला ये दोनों बन में वरण का काल अंतर्मुहुर्त है, उस काल में संभवते प्रविष्ट हुए थे सो किसी समय प्राग लग जाने से दोनों विशुद्धता (मन्दता) रूप कषायों के परिणाम मसंख्यातमि कर प्रर्यात मंत्र के कन्धे पर पांगला बैठकर अपने लोक प्रमाण हैं और वे परिणाम पहले समय से लेकर नगर में पहुंच गये। इस प्रकार संयोगवाद है। (दे प्रागे-मागे के समयों में समान वृद्धि (चय) कर बढ़ते हये गो क० मा० ८१२) । दियो गो.न. --.गोर नीमकांड गा. ४-४६) वह सातिशय प्रमस संयमी समय समय (४) लोकवाक-एक ही बार उठी हुई लोक-प्रसिद्ध बात प्रति अनंत गुणी प्रमाणों की विशुद्धता से बढ़ता हुआ देवों से भी मिलकर दूर नहीं हो सकती तो भन्या की बात अंतमहतं काल तक प्रवृत्त करण को करता है, पुनः क्या है, जैसे कि द्रौपदी कर केवल अर्जुन पांडव के ही उसको समाप्त करके अपूर्वकरण को प्राप्त होता है। गले में डाली हुई माला की पांचों पांडवों को पहनाई है ऐसी प्रसिद्धि हो गई इस प्रकार लोकवादी, नोकप्रवृत्ति (३) अपूर्वकरग का स्वरूप कहते हैं - को हो सर्वस्व मानते हैं। (देखो गो. क. गा० ६६३) प्रपूर्वकरण का काल अंतर्मुहूर्त मात्र है उसमें ह . एक सारश-जो कुछ वचन बोला जाता है वह किसी समय में समानपय वृद्धि) से बढ़ते हुए प्रसख्यात लोक अपेक्षा को लिये हय ही होता है उस जगह जो अपेक्षा है प्रमाण परिगाम पाये जाते हैं, लेकिन यहां अनुकृष्टि वही 'जय' है और जिना अपेक्षा के बोलना अथवा एक नियम से नहीं होती, पयोंकि यहां प्रति समय में ही अपेक्षा से अनंत धर्म वाली वस्तु को सिद्ध करना यही परिणामों में अपूर्वता होने से नीचे के समय के परिणामों परमतो में मिध्यापना है। से ऊपर के समय के परिणामों में समानता नहीं पामी जासी। देवो गोक. गा० ११. और जीव कांड ६:. त्रिकरणों का स्परुप कहते हैं (१) अनंतानुबंधी कषाय की चौकड़ी के बिना शेष (६) वृित्तिकरण का रूप कहते है२१ चारित्र मोहनीय की प्रकृतियों के क्षय करने के लिये जो जीव अनिवृत्ति करण काल के विवक्षित एक अथवा उ शम करने के निमित्त प्रधः प्रवृत्त करण, अपूर्व समय में जैसे शरीर के प्राकार बगैरह से भेद रूप हो करण, अनिवृत्तिकरण ये करण कहे गये हैं, उनमें से जाते हैं उस प्रकार परिणामों से प्रधः करणादि की तरह पहले प्रधः प्रवृत्तकरण को सातिशय मनमत्त मुख स्थान वाला प्रारम्भ करता है, यहां 'करण' नाम परिणाम का भेद रूप नहीं होते और इस करण में इनके समय-समय है । (देवो गो० क. मा० ८६७ और जीव फांड गोः प्रति एक स्वरूप एक ही परिणाम होता है, ये जीव मुख स्थानाधिकार गाधा ४७) अतिशयनिर्मल ध्यान रूपी अग्नि से जलाये हैं कर्मरूपी (२) अधः प्रवराकरण का शवार्थ से सिद्ध लक्षण वन जिन्होंने ऐसे होते हुये भनिवृत्त करण परिणाम के कहते हैं चारक होते हैं, इस प्रनिपत्ति करण का काल भी मंतजिस कारण इस पहले करग में ऊपर के समय के मुंहूतं मात्र है । (देखो गो क० गा० ६११-६१२३ परिणाम नीचे के समय संबंधी भावों के समान होते हैं ६४. कर्म स्थिति की रचना का सद्भाव कहते हैंइस कारण पहले करण का 'प्रधः प्रवृत्त' ऐसा अन्वये सब कर्मों को स्थिति की रखना में छह राशियों को (अर्थ के अनुसार) नाम कहा गया है, उस अधः प्रवृत्त प्रावश्यकता रहती है।
SR No.090115
Book TitleChautis Sthan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAadisagarmuni
PublisherUlfatrayji Jain Haryana
Publication Year1968
Total Pages874
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & Karm
File Size16 MB
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