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________________ I 1 I T ( ७४७ ३१. कर्मों का उदय का क्रम और स्थानोपना बताते हैं कर्म प्रकृति गति अनु वायु स्वामीपना (१) किसी भी विवक्षित भव के पहले समय में ही उस विवक्षित भव 'के योग्य गति, श्रानुपूर्वी तथा प्रायु का उदय होता है । (२) एक जीव के एक ही गति, मानुपूर्वी तथा ग्रायु का उदय युगपत् हुला करता पृथ्वीकायिक मनुष्य श्रीर आतप प्रकृति का उदय बादर पर्याप्त जीव के ही होता है । उच्चगोत्र का उदय देवों के ही होता है । स्थानमृद्धि, निद्रा निद्रा, प्रचलाप्रचला ये ३ महानिद्रा प्रकृतियों का उदय । (१) मनुष्य और तिचों के ही होता है । (२) और इन तीन महानिद्राओं का उदय संख्यात वर्ष की आयु वाले कर्म भूमिया मनुष्य और तिर्यंचों के ही इन्द्रिय पर्याप्ति के पूर्ण होने के बाद हुआ करता है । ( ३ ) परन्तु माहारक ऋद्धि और वैश्विक ऋद्धि के धारक मनुष्यों के इनका उदय नहीं होता इसलिय ऋद्धि वाले मनुष्यों को योड़कर सब कर्म भूमिया मनुष्यों में इनके उदय की योग्यता समझना (देखो गो क० गा० २०५-२८६ ) स्त्री वेद का उदय निर्ऋत्य पर्याप्तक असंयत गुरण स्थान में नहीं है, क्योंकि असंयत सम्परदृष्टि मरण करके स्त्री नहीं होता इसलिये स्त्री वेद वाले श्रसंयत के चारों भानुपूर्वी प्रकृतियों का उदय नहीं होता । नपुंसक वेद का उदय पहले नरक के सिवाय अन्य तीन गतियों की चतुर्थं गुणस्थानवर्ती निर्ऋत्य यतिक अवस्था में नहीं होता इसलिये नपुंसक वेद वाले असंयत के नरक के बिना पंत की तीन धानुपूर्वी प्रकृतियों का उदय नहीं होता । (देखो गो० क० ६८७ ) एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय जाति नामकर्म और सूक्ष्म व साधारण प्रकृतियों का उदय तिर्यंच गति में ही होने योग्य है । अपर्याप्त प्रकृति का उदय तिमंच और मनुष्य के गति में ही होने योग्य है । ववृषभनाराच भवि ६ संहनन और औदारिक शरीर श्रदारिक अंगोपांग का जोड़ा, मनुष्य तथा तिर्यंच के उदय होने योग्य है । वैऋियिकद्विकका उदम देव और नारकीयों के ही होने योग्य कही है । (देखो गो० क० गा० २८८) उद्योत प्रकृति का उदय तेजः कायिक, वायुकायिक और साधारण वनस्पति कायिक इन तीनों के छोड़ कर अन्य बादर पर्याप्त तियंचों के होता है । शेष प्रकृतियों का उदय गुण स्थान के क्रम से जानना (देखो गो० क० गा० २८६ ) ३२. कर्म प्रकृतियों के सत्व का पण करते हैंमिथ्या दृष्टि, सासादन मिश्र इन तीनों गुण स्थानों में से कम से पहले में तीर्थंकर १ श्री प्राहारकातिक २ एक काल में नहीं होते तथा दूसरे में तीनों हो प्रकृति किसी काल में नहीं होते और मिश्र गुण० में तीर्थंकर प्रकृति नहीं होती, भर्थात् १ ले गुर० में नाना जीवों की अपेक्षा उन तीनों (तीर्थकर १+ आहारकतिक २ - ३ प्रकृतियों की ( सब – १४८ ) सत्ता है परन्तु एक जीव की अपेक्षा १ले गुण में जिनके तीर्थकर प्रकृति की सत्ता हो उनके आहारकद्विक २ की सत्ता नहीं रहती और जिनके श्राहारकद्विक २ की सप्ता हो उनके तीर्थकर प्र० १ सत्ता की नहीं रहती । भावार्थ जिनके तीर्थंकर और आहारकद्विक की युगपत् सत्ता है वे मिध्यादृष्टि नहीं हो सकते । २२ सासादन गुण० में तीर्थंकर और माहारकविक इन तीनों हा प्रकृतियों का सत्य किसी काल में नहीं होते इसलिये १४५ प्र० का सत्ता जानना ।
SR No.090115
Book TitleChautis Sthan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAadisagarmuni
PublisherUlfatrayji Jain Haryana
Publication Year1968
Total Pages874
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & Karm
File Size16 MB
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