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________________ भावार्थ-तीनों में से किसी भी प्रकृति को सत्ता पोह का नाश करने के उद्यम करता है अर्थात् कम से रखने वाला सासादन गुरण स्थान वाला नहीं हो सकता मिथ्याल प्रकृति, तथा सम्यक्त्व मिथ्यात्व तथा सम्यक्त्व और ३रे मित्र गुण० में तीर्थकर प्रकृति की सत्ता नहीं प्रकृति का क्षय करते हैं। इस प्रकार सात प्रकृतियों के होती, इसलिये १४७ प्रकृतियों की सत्ता जानना । क्षय करके यायिक सम्यग्दृष्टि होता है। यहां पर तीन गरण स्थानों का प्रकृति सत्व पूर्वोक्त ही समझना, एक भावार्थ--तीर्घकर की सत्ता वाला पिश गुरण : ओव की अपेक्षा १ले मिथ्यात्व गुण स्थान में माहारक वर्ती नहीं हो सकता। (देखो गो क० गा० ३३३) द्विक . और तीर्थकर प्रकृति का सत्व अनुक्रम ले कैसा ३३. चारों ही गतियों में किसी भी प्रायु के बंध रहता है वह बताते हैं कोई जोव ऊपरले गुण स्थान में आहारकद्रिक का बंध करके मिथ्यात्व गुण स्थान में होने पर सम्यक्त्व होता है, परन्तु देवायु के बंध के पाया वहां याहारकदिक के उर्दूलन करने के बाद सिवाय अन्य तीन आयु के बंघ वाला अणुव्रत तथा महा नरकायु का बंध किया, उसके बाद प्रसंबल गुरण स्थान व्रत नहीं धारण कर सकता है, क्योंकि वहां व्रत के में पाकर वहां तीर्थकर प्रकृति का बंध किया, उसके कारणभूत विशुद्ध परिणाम नहीं है। बाद २रे अथवा ३रे नरक में जाते समय मिथ्याष्टि (देखो गो० क० मा० ३३४) हुमा, इस प्रकार मिथ्यादृष्टि जीव को बाहारकटिक २ नरकायु भोगते हुये या अागामी नरकाय का बंध और तीर्थकर प्रकृति का सत्य अनुक्रम से रह सकता है नाना जीवों की अपेक्षा से देखा जाय तो एक समय में हुना हो तो अर्थात् नरकायु के सल्म होने पर देश व्रत पाहारकद्विक २ और तीर्थकर प्रकृति का सत्व रह नहीं हो सकता है तथा तिपंच आयु के सत्त्व होने पर सकता है तथा प्रसंयत से लेकर ७वे गरण स्थान तक महायत नहीं होता और देवायु के सत्व होने पर भपक उपशमसम्यादृष्टि तथा क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि इन दोनों के श्रेणी नहीं होती। ४थे गुरण स्थान में अनंतानुबंधी प्रादि को उपशमरूप सत्ता होने से १४८ प्रकृतियों का सत्व है। ५वे गुण असंयतादि चार गुरण स्थान वाले अनंतानुबंधी के ४. दर्शन मोहनीय के ३ इन ७ प्रकृतियों का किस तरह स्थान में नरकायु न होने से १४७ का, ६वे प्रमत्त गुण नाश करके क्षायिक सम्पदृष्टि होते हैं यह बताते हैं स्थान में नरक तथा तिर्यचायु इन दोनों का सत्व न होने से १४६ का तथा ७वे अप्रमत्त में भी १४६ का ही सत्व प्रथम अधःकरण, प्रपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण है और क्षायिक सम्यग्दृष्टि के अनंतानबंधी कषाय ४ करता है । अनिवृत्तिकरण का काल अंतदूतं का रहता है। उन सातों में से पहले अनंतानुबंधी चतुष्क का तथा दर्शनमोहनीय के ३ इन ७ प्रकृतियों के क्षय होने से अनिवृत्तिकरण रूप परिणामों के अंतहत काल के अंत ... सात सात कम समझना और अपूर्वकरण गुण स्थान में समय में एक ही बार विसंयोजन करके प्रर्थात पर दो श्रेणी हैं, उनमें से क्षपक श्रेणी में तो १३८ प्रकृतियों नुवंधी को चौकड़ी को अप्रत्याख्यानादि बारह कषायरूप का सत्व है, क्योंकि अनंतानुबंधी प्रादि ७ प्रकृतियों का या तो कषायरूप परिग मन करा देता है, इस प्रकार तो पहले ही क्षय किया था और नरक, तिथंच तथा विसंयोजन करके अंतमुहूर्व काल तक विश्राम करता है। देवायु इन तीनों की सत्ता ही नहीं है, इस प्रकार + ३ इसके बाद प्रर्थात् मनिवृत्तिकरण काल के बहुभाग को छोड़ =१० प्रकृतियां कम हो जाती हैं । (देखो गो का गा. के शेष संख्यातवे एक भाग में पहले समय से लेकर दर्षन ३३५-३३६)
SR No.090115
Book TitleChautis Sthan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAadisagarmuni
PublisherUlfatrayji Jain Haryana
Publication Year1968
Total Pages874
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & Karm
File Size16 MB
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