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________________ [ ७१ ] शुभ-अशुभ में से १, दुभंग १. अनादेय १, यश:कीति- प्रकृतियों का द्वीन्द्रिय पर्याप्त स्थान में उद्योल प्रकृति ? अयशःकोति में से १, तिर्यचटिक २, द्वीन्द्रियजाति १, जोड़कर ३० जानना । मौदारिकटिक २, हुंडक संस्थान ', अ-सृपाटिकासंहनन १, २रा प्रन्द्रिय पर्याप्त उपोतयत- ऊपर के २६ दुःस्वर १ अप्रशस्तविहायोगति १, उच्छ्वास ५ परषात प्रकृतियों कात्रीन्द्रिय पर्याप्तयत स्थान में एक उद्योत १ मे २६ जानना। प्रकृति जोड़ कर ३० जानना 1 २रा वीन्द्रिय पर्याप्तयुक्त-ऊपर द्वीन्द्रिय पर्याप्तयुत समिन्द्रिय पर्याप्त योतयत-ऊपर के २६ के २६ में दीन्द्रिय जाति की जगह त्रीन्द्रिय जाति जोड़ प्रकृतियों का चतुरिन्द्रिय पर्याप्तयुत स्थान में एक उद्योत कर २६ जानमा। प्रकृति जोड़कर ३० जानना । ३रा चतुरिन्द्रिय पर्याप्तयुत ऊपर के श्रीन्द्रिय या पंचेन्द्रिय पर्याप्त उद्योतयुत-ऊपर के २६ पर्याप्तयुत के २६ में त्रीन्द्रिय जाति की जगह चतुरिन्द्रिय प्रकृतियों का पंचेन्द्रिय पर्याप्तम्त स्थान में एक उद्योत जाति जोएकर २६ जानना। पनि जोड़ कर ३० जानना । या पंचेन्द्रिय पर्याप्तयुत (तिच – ध्रुवप्रकृतियां ६, अस १, बादर १, प्रत्येक १, पर्याप्त १ स्थिर-पस्थिर म से , ५षा मनुष्य तीर्थकरयत कार के २९ प्रकृतियों का शुभ-अशुभ में से १, सुभग-दुभंग में में १, प्रादेम-यनादेय मनुष्य पर्याप्तश्रुत स्थान में एक तीथंकर प्रकृति जोड़कर में से १, यश-कीति-अयशःकीति में में ,छः संस्थानों मे ३० मानना । मे कोई १, छः संहननों में से कोई १, सुस्वर-दुस्वरों में वो देखगति प्राहारयुत-ऊपर के २६ प्रकृतियों से कोई १, दो विहायोगतिमों में कोई १, तिचद्विक का देवगति तीर्थकरयुत स्थान में से तीर्थकर प्रकुति १ २, मौदारिकद्विक २. पंजियाति १, उच्छवास १, घटाकर, आहारकावक र जोड़कर ३० प्रतियां परषात १, ये २६ जानना । जानना । ५वा मनुष्य पर्याप्तयुत--ऊपर के २६ में तियंचविक (७) ३१ प्रकृतियों का एक ही स्थान है२ के जगह मनुष्याद्विक २ जोड़कर २६ जानना । वो देवमति सोकरयुत-ध्रुव प्रकृतियां १देशाति प्राधारक-तीकरत-ऊपर २६ प्रकृतियों स १, बादर १ पर्याप्त १,प्रत्येक. १, स्थिर-अस्थिर मे स , शुभ- का देवगति तीर्थकरयुत इस स्थान में याहारकादिक २ अशुभ में से १. सुभग १, प्रादेय १ यशःकाति-अयश कीति जोड़कर ३. जानना ।। में सं १, देवद्विक २, बयिकातिक २, पद्रिय जाति (८) १प्रकृति का एक ही स्थान है-वह प्रकृति १, समवरन संस्थान १, सुपर १, प्रशस्तविहायोगति प्रति यशः कीति १ जानना। १. उच्छदास, परमात १, तीर्थकर ये २६ जानना । इस कार नामकर्म के प्राठ स्थानों के २५प्रकार सूचना -२८ प्रकृतियों का बन्घस्थान में देवगातचूत जानना । जो प्रमार बतलाया है, उससे एक तीर्थकर प्रकृति इसमें सूचना--नरकगतिपुल २८ प्रकृतियों का स्थान में बढ़ गया है। और कैन्द्रिय अपर्याप्तयुत २३ प्रकुतियों का स्थान में १६. ३० प्रतियों का ६वा अन्धस्थान के ६ और बस शापनियत २५ प्रकृतियों का स्थान में दुभंग, प्रकार.. सुभगादि शुभाशुभ प्रहानियों में में एक का ही बन्न होगा १ला द्वीन्जिय पर्याप्त उद्योग्यस--ऊपर के २६ ऐसा जो लिखा है वह अशुभप्रकृति का ही वध होगा।
SR No.090115
Book TitleChautis Sthan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAadisagarmuni
PublisherUlfatrayji Jain Haryana
Publication Year1968
Total Pages874
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & Karm
File Size16 MB
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