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________________ ( ७३० ) (१) सज्वलन कषायों को बासना का काल अन्तर्मुहूतं तक जानना (२) प्रत्याख्यान , एक पक्ष (१५ दिन) (३) अपत्यास्थान छः महीना (४) अनन्तानुबंधी , संख्यात, असंख्यात तथा अनंतभव है, ऐसा निश्चय कर , समझना । (देखो गो० क. गा० ४६) १२.कालोधात मरए अयंता अकालमत्व का लक्षण वर्ष के भीतर जितने भेद है उतना प्रमाण समभना। विषभक्षरण में अपना विव वाले जीवों के काटने से रक्त-(देखो गो० क० मा० ५८-५९-६०) क्षय अथवा धातु क्षय से, भय से, शस्त्रों के (तलवार १५. ईगिनी मरण का लक्षण - अपने शरीर की आदि हथियारों घास से, संक्लेश परिणामों से अर्थात दहल ग्राप ही अपने अंगों से कर, किसी दूसरे से रोगादि का उपचार में करव, एसे विधान से जो सन्याप धारण मन-वचन-काय के द्वारा प्रात्मा को अधिक पीड़ा पहुंचाने कर गरे उस मरण को इगिनीगररग संयाम कहते है। वाली श्रिया होने से, श्वासोच्छ्वास के शक जाने से और १५) प्रायोपगमन मरण का लक्षणा- अपने शरीर आहार (खाना पीना) नहीं करने से, इस जीव की प्रायु की टहल न तो आप अपने अंगों से करें और न दूसरे से कम हो जाती है, इन कारणों से जो मरण हो अर्थात् ही करावें अर्थात जिसमें ग्राना तथा दूसरे का भी गरीर छूट उसे कदलीघात मरण अथवा अकाल मृत्यु उपचार (सेवा) न हो ऐसे सन्यासमरण को प्रायोपगमन कहते हैं । (देलो गो० क० गा० ५७) मरण कहते हैं। (देखो गो० क. गा. ६७) १३. भक्त प्रतिज्ञा मरण का लक्षण-जघन्य, मध्यम, (१६) तीर्थकर प्रकृति बंध का नियम-प्रमयत-चतुर्थ उत्कृष्ट के भेद से भक्त प्रतिज्ञा तीन प्रकार की है। मक्त गुहा स्थान से लेकर ८वे गुगा स्थान अपूर्वकरण के वे भाग तक के सम्यादष्टि के ही तीर्थंकर प्रकृति का बंध प्रतिज्ञा अर्थात् भोजन की प्रतिज्ञा कर जो सन्यास मरण होता है। प्रथमोपशम-सम्यक्त्व में अथवा बाकी के हो उसके काल का प्रमाण जघन्य (कम से कम) अन्त- द्वितीयोपशमसम्यक्त्व, क्षयोपशाम सम्यक्त्य और क्षायिकहत है और उत्कृष्ट (ज्यादा से ज्यादा) बारह वर्ष सम्यक्त्व की अवस्था में प्रसंयत से लेकर अप्रमत्त गुण रा है तथा मध्य के भेदों का काल एक एक समय स्थान तक चार गुण स्थानों वाले कर्म भूमिग मनुष्य बढ़ता हुया है, उसका अन्तर्मुहूर्त से ऊपर और बार ही, केवली तथा श्रुत केवली (दादशान के पारगामी) १. अधिक दौड़ने से जो अधिक स्वासें चलती हैं वहां काय की क्रिया तथा भन की क्रिया रूप संक्लेश परिणाम होते हैं, इस कारण अधिक श्वास का चलना भी अकाल मृत्यु का निमित्त कारण है, इस एक ही दृष्टांत को देखकर अज्ञानी लोक एकांत से श्वास के ऊपर हो आयु के कमती बढ़ती होने का अनुमान कर श्वास के कमती बढ़त! चलने से प्रायु घट बढ़ जाती है ऐसा श्रमदान कर लेते हैं। उनके भ्रम दूर करने के लिये पाठ कारण गिना , क्योंकि यदि एक ही के ऊपर विश्वास किया जाय तो शस्त्र के लगने से श्वास चलना तो अधिक नहीं मालुम पड़ता, यहां पर या तो अपमृत्यु न होनी चाहिये अथवा अधिक एवास चलने चाहिये, दूसरी बात यह है कि भुज्यमान प्रायु कभी भी बढ़ती नहीं है। समाधि में श्वास कम पलते हैं, इसलिये आयु बढ़ जाती है ऐसा मानना मिथ्या है। वहीं पर श्वास के निरोध से प्रायु कम नहीं होती।
SR No.090115
Book TitleChautis Sthan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAadisagarmuni
PublisherUlfatrayji Jain Haryana
Publication Year1968
Total Pages874
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & Karm
File Size16 MB
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