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________________ के निकट ही तीर्थकर प्रकृति के बंध का प्रतिष्ठापन त्यपर्याप्त अवस्था को प्राप्त मिश्र काय योग इन दोनों के (प्रारम्भ) करते हैं, परन्तु इस प्रकृति का निष्ठापन सिवाय मिथ्या दृष्टि से लेकर अप्रमत गुगा स्थान तक तिर्यंच गति छोड़कर शेष तीन गतियों में अर्थात नरक, ही होता है देखो गो. क. गा०६२) मय, देवगति में होता रहता है। सारांश अगर निष्ठा १९. तीर्थकर प्रकृति १, आहारकाद्विक ५, आयु कर्म पन काल के समय वर्तमान प्रायु का काल समाप्त होकर के प्रकृति , इनके सिबाय बाकी बची प्रकृतियों का बध अगली गति में जन्म होने पर बंध हो सकता है। मिथ्यात्व वगैरह अपने अपने बंघ की ब्युच्छित्ति' तक होता प्रथमोपशम सम्यक्त्व में तीर्थंकर प्रकृति का बध नहीं है ऐसा मानना (देखो गो क० गा. ६२) हो सकता ऐसे भी कोई प्राचार्यो का मत है। 30. किस गुरण स्थान में कितने प्रकृतियों के तर : कृश ना होने का सार काल- बंध की ध्यमित्ति होती है उनकी संखडा निम्न प्रकार २ कोटिपूर्व और पाठ वर्ष + एक अंत मुहूर्त कम ३६ जानना, व्युच्छित्ति का भर्थ बंध का प्रभाव यह पर सागर काल तक तीर्थंकर प्रकृति का बंध होता रहता है बता चुकी है, किस गुण स्थान में जिस प्रकनियों की यह उत्कृस्ट काल है। (दो कोटि पूर्व व+३३ सागर ब्युच्छित्ति हो चुकी है उन प्रकृतियों का बंध प्रगान गण स्थानों में नहीं होता। -८ वर्ष और एक यतर्मुहूर्त) (देखो गो क. गा. १३-६२) २रे गुग्ण स्थानों में जो २५ प्रकृतियों को न्युयिन्ति १७. श्राहारक शरर और ग्राहारक अंगोपांग होती है उन • ५ प्र० का बंध केवल मिय्याल से ही प्रकृत्तियों का बंध अप्रमत्त ७वे गुण स्थान से लेकर से होता है और सासादन मुरग स्थान में केवल मनताअपूर्वकरण गुरण स्थान के छठे भाग तक ही होता है और नुबंधी से ही होता है (देखो गो० क० गा०६४ से १०. (देखो गो० क० गा६२) को ०१) यह कथन इस अध्याय में नाना जीवों की अपेक्षा से जानना। १८, मायु कर्म का बंध मिश्र गुण स्थान तथा निर्व (१) न्युच्छित्ति नाम बिछुड़ने का है । परन्तु जहां पर न्युच्छित्ति कही आती है वहां पर उनका संयोग रहता है। जैसे दो मनुष्य एक नगर में रहते थे। उनमें से एक पुरुष दूसरी जगह गया। वहां पर किसी ने पूछा कि तुम कहां बियेथे? तब उसने कहा कि, मैं प्रमुख नगर में बिसा था अर्थात उससे जुदा हुआ है तरह जहां जहां पर कर्मा के बन्ध, उदय, अथवा सत्त्व की व्युच्छित्ति बताई है वहां पर तो उन कर्मों का नाघ, उदय अथवा सत्व रहता है, उसके आगे नहीं रहसा, ऐसे सर्वत्र समभ लेना चाहिये ।
SR No.090115
Book TitleChautis Sthan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAadisagarmuni
PublisherUlfatrayji Jain Haryana
Publication Year1968
Total Pages874
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & Karm
File Size16 MB
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