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________________ ( ७२६ ) (११६) प्रादेय नामकर्म - जिसके उदय से कान्ति पूजित (मान्य) कुल में जन्म हो उसे उच्च गोत्र कम सहित शरीर हो उसको प्रादेय नामकर्म कहते हैं। कहते हैं । ११३८) अनादेय नाम -जिसके उदय से प्रभा १३) नीच गोत्र कर्म-जिस कम इक्य में कान्ति रहित शरीर हो वह अनादेय नामकर्म है। लोक निदित कुल में जन्म हो उस नीच गं. धर्म ११३८) यशः काति नामकर्म-जिसके उदय से कहते हैं। अपना पुण्य गुण जगत में प्रगट हो अर्थात संसार में ६. अन्तरायकों के पांच मेवों का चरपजीव की तारीफ हो उसे यशः कीति नामकर्म कहते हैं। (१४४) नानान्तरराय फर्म - जिसके उदय में देना ११)भयशः कीति मामकर्म-जिस कर्म के उदय चाहे परन्तु दे नहीं सके वह दानान्तराय कम है। से संसार में जीव की तारीफन हो उसे अयशः कीति (१४५) लाभातराय कर्म-जिसके उदय में लान नामकर्म कहते हैं। (फायदा की इच्छा करे लेकिन लाभ नहीं हो सके उसे (१४०) निर्माण नामकर्म-जिसके उदय से पारीर लाभांतराय कर्म कहते हैं। के अगों-पांगों की ठीक ठीक रचना हो उसे निर्माण (१४६) भोगासराय कर्म-जिस कर्म के जदयो नामकर्म कहते हैं, यह दो प्रकार का है, जो जाति नामकर्म अन्न या पुष्पादिक भोगरूप वस्तु को भोगना चापरत की अपेक्षा से नेत्रादिक इन्द्रियें जिस जगह होनी चाहिए भोग न सके वह भोगान्त राय कर्म है। उसी जगह उन इन्द्रियों की रचना करें वह स्थान (१४७) उपभोगान्तराय कर्म-जिसके उदय से स्वी. निर्माण है और जितना नेत्राविक का प्रमाण (माप) वस्त्र, वगैरह उपभोग्य वस्तु का उपभोग न कर सके चाहिये नि है. प्राण ( राम) कमरे वह उसे उपभोगांतराय कर्म कहते हैं। प्रमारण निर्माण है। तीथकर नामकर्म-जी श्रीयुत् ताथकर (१४.) बीन्तरायःकर्म जिस कर्म के उदय में (पहत) पद का कारण हो वह तीर्थकर प्रकृति नाम- अपनी शक्ति (बल.) प्रकट करना चाहे परन्स शातिर कर्म है। न हो उसे वीर्यान्तराय कर्म कहते हैं७. गोत्र कर्म के दो मेवों का स्वरूप इस प्रकार १४८ उत्तर प्रकृतियों का शब्दार्थ जानना {१४२) उच्च गोत्र हर्म-जिसके उदय से लोक- (देखो गो० क. गा. ३३) १०, कषायों का नाम कषायों का कार्य(१) अनन्तानुबंधी कषाय सम्यक्त्व को पावती है (२) अप्रत्याख्यान , देश चारित्र को (३) प्रत्याख्यान । सकल चारित्र को , (४) संज्वलन यथाख्यात बारित्र को,, अर्थात सम्यक्त्व वगैरह को प्रकट नहीं होने देती किसी ने क्रोष किया, पीछे वह दूसरे काम में लगी (देखो गो० क० गा० ४५) वहां पर क्रोष का उदय तो नहीं है, परन्तु जिस पुरुष पर क्रोध किया था उस पर क्षमा भी नहीं है, इस प्रकार जो ११. कसायों को वासना का (संस्कार का) काल क्रोध का संस्कार चित्त में बैठा हमा है उसी की धासताः . 'उदयाभावेऽपि तत्संस्कार कालो वासना कालः, अर्थात् का काल यहां पर कहा गया है।
SR No.090115
Book TitleChautis Sthan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAadisagarmuni
PublisherUlfatrayji Jain Haryana
Publication Year1968
Total Pages874
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & Karm
File Size16 MB
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