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________________ T ५ कीलित संहनन वाले जीव ( २२ ) अर्धनाराच संहनन जाले जीव १२ नारा तक इन तीन संहनन वाले जीव १२ नाराच, वखपमनाराम इन दो मनाले जीव १ ले वामनाराच संहनन वाले जीव प्रश्न यह संज्ञी बीव वे म० पाहिला छोड़कर शेष पांच संहनन वाले I जीव १ से ४ अर्थात् य नाराच संहनन तक के चार संहनन वाले जीव १मे नच नाराच संहतन वाले जीव देशी गो० ८०६० २६-३०- १) ६, कर्म भूमि की स्त्रियों के अन्त के ती भाराचीवित, असं पाहि सहनों का ही उदय होता है आदि के तीन ववृषभ नाराचादि सहनव कर्म भूमि की स्थियों के नहीं होते । (देखो गो० क० गा० ३२) ७. बाप और उद्योत प्रकृति का नक्षलप्रातप प्रकृति का उपय मनिकाय में भी होना चाहिये, ऐसा कोई भ्रम कर सकता है। क्योंकि जो संताप करेत् उगाने से जलाये वह श्रातप कहा जाता है, अतः भ्रम के दूर करने के लिये चन्नी से भिन्न भाप का लक्षण कहते हैं। आग के मूल और प्रभा दोनों ही उष्ण रहते है. इस कारण उसके स्वर्ण नाम कर्म के मेद उष्ण स्वयं नाम कर्म का उदय जानना और जिसकी केवल प्रभा (किर. का फैलाव ) ही उष्ण हो उसको श्राप कहने हैं इस ग्रालय नाम कर्म का उदय सूर्य के बिम्ब (विमान में उत्पन्न हुये बादर पर्याप्त पृथ्वीकाय के तिच जीवों के सममता तथा जिसकी प्रभा भी उष्णता रहित के तियंच हो उसको नियम से उद्योत जानना । ८. कर्म बंध था स्वरूप-रूपों का और आत्मा का दूध और पानी की तरह पापस में एक रूप हो जाना यही बंध है, जैसे योग्यपान में रखते हुये अनेक तरह के रस, बीज, २ से १२ होते हैं १३ से १९ उत्पन्न होते हैं यदि नरक में जन्म लेवें तो स्वर्ग तक में उत्पन्न स्वर्ग तक अर्थात् गल में यूगल नत्र ॐ वैयिक तक जाता न तक जातः ६ पांच अनुतर विमान तक जाता है। उत्तर तीसरे नरक तक जाते हैं पांचवीं नरक की पृथ्वी तक उपजते है छटी पृथ्वी तक उत्पन्न होते है पृथ्वी तक उत्पन्न होते हैं। कर्मा दि फूल तथा फल सब मिलकर मदिरा (सराव भार प्राप्त होते हैं उसी प्रकार कर्म रूप होने वर्गणा नाम के लोग और का निमित्त पाकर कर्म भाव को प्राप्त में रूपने की सामर्थ्य भी प्रनट होती है, समय में होने वाले अपने एक ही परिणाम ने ग्रहण एक भ भेदरूप होकर परते हैं, अंक एफबारी किये हुये कर्म योग्य पुदगल, ज्ञानावरणादि अनेक या ग्रास अन्न, रेम, रक्त, यांग यादि अनेक धातुउपधातु रूप परिणमना है । ६. कर्मों के निमित्त मे ही भी की अनेक दशायें होती है. इस कारण कमों के बाकी अपेक्षा से कार्य बताते हैं यह जानना प्रावरण वृगोति आव्रियते अनेन यावरणम् ऐसी लत है, जो करे जिससे अत्र आवरण किया जाय वह आवरण है । १. ज्ञानावरल के पांच भेदों (.) रग, रक्तादिस्तु परिणयन से होता है और ज्ञानावरणादि का परिमन युगपत् होता है, इतना अन्तर है । रूप (.) मतिज्ञानावरण कर्मनिज्ञान का जोर 44
SR No.090115
Book TitleChautis Sthan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAadisagarmuni
PublisherUlfatrayji Jain Haryana
Publication Year1968
Total Pages874
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & Karm
File Size16 MB
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