SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 756
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ । ७२३ ) करे प्रयत्रा जिसके द्वारा मतिज्ञान प्रावृत किया जाय (१२) प्रचलाप्रचला वर्शनावरण कर्म--'यदुदयात् अति ढका जाय वह भतिज्ञानावरण कम है। त्रिवानात्मान पुनः पुनः प्रचलयति तत्प्रचला प्रसन्ना दर्श() श्रुतमानावरण कर्म-श्रुतज्ञान का जो प्रावरण नावरणम्' अर्थात जिस कर्म के उदय से किया प्रास्मा करे बह शुतज्ञानावरण कर्म है। को बार बार पलाव वष्ट प्रचलाप्रचलादर्शनावरण कर्म (३) अवधिनातावरण कर्म अबाधिज्ञान का जो है। क्योंकि शोक अवथा खेद या माद नशा मादि से प्रापरण करे वह अबाधिज्ञानावरण कम है। उत्पन्न हई निद्रा की अवस्था में बैठते हए भी शरीर के प्रग बहुत चलायमान होते हैं, कुछ सावधानी नहीं (४) मन:पयज्ञानावरण कम - मनःपर्य यज्ञान का रहती। जो पावरख करे वह मनःज्ञानावरण कर्म है। (१३) निवादशनावरण कर्म-जिसके उदय से मेट (१) केवलज्ञानावरण कर्म- केवलज्ञान को 'पावृणोति आदिक दूर करने के लिये केवल सोना हो वह निद्राढक वह केवल जानावरगा कर्म है। दर्शनावरण कर्म है। २ वर्शनावरण कर्म के मक भेदों का स्वरूप-- (१४) प्रचलावर्शनवरण कर्म-जिसके उदय से १६) जक्ष शंनावरण कर्म-जो चक्ष में दर्शन नहीं शरीर की किया पात्मा को चलाये और जिस निदा में होने देवे वह चादर्शनाबरण कर्म है। कुछ काम करे उसकी याद भी रहे, अति कृतं की () अन्नक्षुदर्शनावरण कम-चा (नेत्र) के सिवाय सरह अल्पनिद्रा हो वह प्रचला दर्शनावरण कर्म है। दमी चार इन्द्रियों से जो दर्शन (सामान्यावलोकन को) ३-बेनीय कर्म के दो भेदों का स्वरूपनहीं होने दे वह अचक्षदर्शनावरण कर्म है। (११) साताषेवनीय (पुण्य) कर्म-जो उदय में पाकर अधिवशनारण कर्म – जो अवधि द्वारा दर्शन देवादि गति में जीव को शारीरिक तथा मानसिक सुखों न होन द वह अभिदर्शनावरण कम है। की प्राप्तिरूप साता का 'वेदयति' भोग करावे, अथवा ६) केबलदशनाधरण फर्म केवलदर्शन अथित् 'वेद्यते अनेन' जिसके द्वारा जीव उन सुखों को भोगे वह त्रिकाल में रहने वाले सब पदार्थों के दर्शन का यावरण सातावेदनीय कर्म है। करे उसे केवलदर्शनान रग कर्म कहते हैं। (१६) सातादेवनीय कर्म-जिसके उदय का फल (१०) स्थानति दर्शनावरण कर्म - 'स्थाने रुवाये अनेक प्रकार के नरकादिक गति जन्य दुःखों का भोगगृध्यते दीप्यते मा स्थानगुद्धिः: (निद्राविशेषः) दशना- अनुभव कराना है वह सातावेदनीय कर्म है। वरगाः' धातु शब्दों के व्याकरण में अनेक अर्थ होते हैं, ४-मोहनीय कर्म के दर्शनमोहनीय और चारित्रतदनुसार इस निरक्ति में भी स्थ' धातु का अर्थ सोना मोहनीय ऐसे दो भेद हैं। दर्शन मोहनीय कर्म बंध की और 'मृध' धान का अर्थ दीप्ति गमझना, 'मतलब यह अपेक्षा से 'मिथ्यात्व' यह एक ही प्रकार का है। किन्तु उदय है, जो सोने में अपना प्रकाश करे अर्थात जिसका उदय और सत्ता की अपेक्षा मिध्वात्व, सम्य मिथ्यात्व, होने पर यह जीत्र नींद में ही उठकर बहत पराक्रम का . सम्यक्त्व प्रकृति ऐसे तीन तरह का कहा है। कार्य तो करे, परन्तु भान नहीं रहे कि क्या किया था? चारित्रमोहनीय के एक कषाय वेदतीय और दूसरा उसे स्थानगृद्धि दर्शनावरण कर्म कहा हैं। नोवाषाय बेदनीय ऐसे दो भेद कहे हैं। उनमें से कषाय(११) निद्रा निता दर्शनावरण कर्म -जिसके उदय बेदनीय १६ प्रकार का है, और नोपवाय वंदनीयह से निन्द्रा की ऊ'ची पुनः पुनः प्रवृत्ति हो, अर्थात जिससे प्रकार का है दोनों मिलकर २५ होते हैं। प्रांख के पलक भी नहीं उघाड सके उसे निद्रा- इस प्रकार मोहनीय कर्म के ३+:५-९८ प्रकृति निमा दर्शनावरणकर्म कहते हैं। जानना
SR No.090115
Book TitleChautis Sthan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAadisagarmuni
PublisherUlfatrayji Jain Haryana
Publication Year1968
Total Pages874
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & Karm
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy