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________________ KA ( ७२० ) नाराच संहनन १. तीर्थंकर प्रकृति १ ये ७१) गोत्रकर्म के (संज्वलन लोभ १ छोड़कर शेष •७) नामकर्म के २१ २, अन्तराय ५, ये १२१ जानना। (तियंचतिक २, एकेन्द्रियादि जाति ४, पातप १, उद्योत ३८. गुण संक्रमण प्रकुतियां ७५ हैं १, स्थावर १, सूक्ष्म १, साधारण १, माहारकटिक २, देवविक २, नरकनिक २, वैक्रियिफ २ मनुष्यधिक २ ये स्थानप्रद्धि मादि महानिद्रा ३, प्रचला १, असाता ये २१) उच्चगोत्र १ ये ५२ जानना। वेदनीय १, मोहनीय २३, (अनन्तानुबन्धी , अप्रत्याख्यान ४, प्रत्यारुपान ४, प्ररति-शोक २, नपुसकवेत १, प्रषवा स्त्रीवेद १, मिथ्यात्व १, सम्यक्त्व प्रकृति , सम्यग्मिण्यारव १, हास्य रति २, भयन्जुगुप्सा. २, ये २३) तिर्यक् एकादश ११, उद्वेलन की १३, संकलन । नामकर्म के ४ (तिर्यचद्विक २, एकेन्द्रियादि जाति ४, लोभ , सम्यक्त्व मोहनीय १, मिश्र मोहनीय १ इन पातप १, उद्योत १, स्थावर १. सूक्ष्म, साधारण १, तीन के बिना मोहनीय की २५ और स्थानपति मादि अशुभवरणादि ४, उपधास१, बचषभ नाराच संहनन ३ इन सब ५२ प्रकृतियों में सर्वसंक्रमण होता है। छोड़कर शेष संहान ५, समचतुरन्नसंस्थान छोडकर (देखो गो० क-गा- ४१७) शेष संस्थान ५, अप्रशस्त विहायोगति १, अपर्याप्त १, अस्थिर १, अशुभ १. दुर्भग, दूःस्वर १. भनाय १. ४०.तिर्यगेकावश प्रकृतियां पर्थात् सर्व संक्रमण प्रकृतियों अयशः कीर्ति १ पाहारकद्विक २, देवतिक २. नरक में जिनका उदय तिर्यग गति में ही पाया जाता, जन द्विक २, वक्रियिक द्विक २, मनुष्यद्विक २, ये ४४) गोत्र १६ प्रकृतियों के नाम-तियंचद्विक २. एकेन्द्रियादि जाति कर्म के २, ये सब मिलकर ७५ जानना। (देखो गो० ४, पातप १, उद्योत १, स्थावर १, सूक्ष्म १, साधारण कर गा० ४१६. से ४२८) १ ये तिर्यक् ११ प्रकृतियां हैं अर्थात इनका उय तियनों ३६. सर्व संक्रमण प्रकृतियां ५२ हैं में ही होता है इसलिये इनका नाम 'तिर्यगेकादश' ऐसा स्थानद्धि प्रादि महानिद्रा, मोहनीय के ० है। (देखो गो० क. गा० ४१४) -: :--
SR No.090115
Book TitleChautis Sthan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAadisagarmuni
PublisherUlfatrayji Jain Haryana
Publication Year1968
Total Pages874
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & Karm
File Size16 MB
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