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________________ प्रौदारिक शरीर १, प्रौधारिक अंगोपांग १, वैक्रियिक हुई कर्म प्रकृति को अन्य रूप से परिमन करके उसका द्विक २, प्रशस्त विहायोगति १, वय वृषभनाराच संहनन नाश करना उसको उद्वेलन कहते हैं। १, परघात ', उच्छवास १, समचतुरस्र-संस्थान १, पंवेन्द्रिय जाति १, सदशक १ (नस १, बादर १, मिच्यात संक्रमण की प्रतिमा ६७ हैंपर्याप्त १, प्रत्येक १, स्थिर १, शुभ १, सुभग १, स्थानगृद्धि प्रादि महानिद्रा ३, प्रसातावेदनीय १, सूस्वर १, प्रादेय १, यशः कीति १ये १०) गोत्रविक २ मोहनीय के १८ (अनन्तानुबंधी कषाय, अप्रत्याख्यान इस प्रकार १+३+६+२%D३२ जानना। कषाय ४, प्रत्यस्यान कषाय ४, परति-शोक २, नपुसक वेद १, स्त्रीवेद १, मिथ्यात्व प्रकृति १, सभ्यग्मिथ्यात्व ऊपर के ३२ प्रकृतियों में जिस प्रकृति के प्रतिपक्षी प्रकृति १ये १५) नाम कर्म ४३ (तियचद्विक २, एकेन्द्रिय आदि का बंध संभवनीय हो इस प्रकृति का बंध सान्तर होगा जाति ४, प्रा.प१, उद्योत , स्थावर १, सूक्ष्म १, और प्रतिपक्षो प्रकृति की बंध भ्युच्छित्ति जहां होगी या साधारण १, अप्रशस्त विहायोगति १, वजदृषभनाराच हो गई हो वहां उस प्रकृति का बंध निरन्तर प्रतिपक्षी संहनन यह छोड़कर शेष संहनन ५, समचतुरस्त्र संस्थान प्रकृति की बंछ व्युच्छित्ति होने के बाद उस सान्तर बंध छोड़कर शेष संस्थान ५, अपर्याप्त , अस्थिर , अशुभ होने वाली प्रकृतियों की बंध व्युच्छित्ति होने तक सान्तर . १, दुर्भग १, दुःस्बर १, मनादेय १, अयशः कीति १, पाहाके बदले निरन्तर बंध होता रहेगा। रकविक २, देवद्विक २, नरकद्विक २, वैक्रियिकद्विक २, स्वजातीय अन्य अन्य प्रकृतियों का जहां बंध हो मनुष्यद्विक २, पोदारिकतिक २, वयवृषभनाराच संहनन सकता है वहां उस प्रकृति को संप्रतिपक्षी प्रकृति कहना १, तीर्थकर प्र.१,८४३) नीचगोत्र १, उच्चगोत्र १ चाहिये मोग वहां तक ही वह प्रकृति सान्तर बंधी रहती ये २ सब मिलकर ६७ जानना 1 है और जहां केवल प्रापका ही बंध होता रहेगा वहां निष्पति पक्षी प्रकृति कहना चाहिये और उस समय वह ___३७. प्रषः प्रकृति संक्रमण की प्रकृतियां १२१ हैनिरन्तर बंधी रहती है। झानाबरा के ५, दर्शनावरण के ६, वेदनीय २) उदय बंधी ३२ प्रकृतियों के सातर निरन्तर बंध मोहनीय के २७ (मिथ्यात्व प्रकृति १ छोड़कर शेष २७) का विवरण गो. क० गा.४०४ से ४०७ और कोष्टक नाम कर्म के ७१ (पंचेन्द्रिय जाति १, तेजस शरीर १.कार्माण नं० १४१ देखो। शरीर १, समचतुरस्रसंस्थान १, शुभवर्णादि ४, भगुरुलधु १. परघात ', उच्छवास १, प्रशस्त विहायोगति १, बस १, ३५ देलन प्रकृतियां १३ हैं बादर १, पर्याप्त १, प्रत्येक शरीर १, स्थिर १, शुभ १, पाहारकद्विक २, सम्यकाव प्रकृति १, सम्यग्मिथ्यात्व सुभग १, सुस्वर १, प्रादेय १, प्रश: कीर्ति १, निर्माण १, प्रकृति १, देवद्रिक , नरक चतुष्क (नरक गति एकेन्द्रियादि जाति ४, पातप १, उद्योत , स्थावर १, नरक गत्यानुपूर्वी १, वैक्रियिक शरीर १, क्रियिक सूक्ष्म १, साधारण १, तिर्यंचद्विक २, अशुभवर्णादि ४, अंगोपांग १ ये ४) उच्चगोत्र १, मनुष्य गति १, मनुष्य उपघात १, अप्रशस्त विहायोगति १, वजवृषभनारान मत्यानुपूर्वीयेप्रकृतियां कप से जीवों के उतूलन सहनन छोड़कर शेष संहनन ५, समचतुरस्त्रसंस्थान की जाती है। (देखो गो का गा० ३५०-४१५) छोडकर शेष मंस्थान ५, अपर्याप्त १, अस्थिर १, अशुभ १, दुर्भग १, दुःस्बर १, प्रनादेय, अयशः कीति १, उलन का स्वरूप-पाठ देकर भांजी हई रस्सी आहारकद्विकर. देवहिक २, नरकद्विक २, वैकियिकका सार जिस प्रकार उकेल दिया जाय उसी प्रकार बंधी द्विक २, मनुष्यद्विक २, औदारिकातिक २, वनवृषभ
SR No.090115
Book TitleChautis Sthan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAadisagarmuni
PublisherUlfatrayji Jain Haryana
Publication Year1968
Total Pages874
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & Karm
File Size16 MB
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