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________________ १. जिस प्रकृति का उदय होता है उसका उस हो ४, तीर्थकर १, पाहारकहिक २ ये १२) अंतराय कर्म के समय बध होता है ऐसी प्रकृतियाँ २७ है- ५, इस प्रकार ५+ +१६+४+१२+५=५४ ज्ञानाबरणीय के ५, दर्शनावरणीय के ४, मोहनीय जानना)। मिथ्यात्व प्र.१, नामकर्म के १२ (तेजस-कामणि २, इनमें १७ प्रकृति प्रयोदयी अर्थात उदय ज्युचिस्मृत्ति स्पादि ४, स्थिर-अस्थिर २, शुभ-अशुभ २, अगुरुलधु, तक सतत उदय होने वाली हैं। उनका नाम-जानावरण निर्माण में १२) अन्तराय के ५, इस प्रकाः ५४+ ५, दर्शनावरण , यंतराय ५, मिथ्यारत्र १, कषाय १६, १+१२+५=२७ जानना। भय-जुगुप्सा २, तंजस १, र्माण । प्रगुरुलषु १, जामात १, निर्माण, सगे ४७ सपनोदयी ३० एक प्रकृति का उचय होता हुमायूसरे प्रकृति का प्रकृति ७ है (तीर्थकर १, पाहारविक २, यापु४, ये ७) बंध होता है ऐसी प्रकुसियो ११ है इस प्रकार ४७+७= ५४ जानना । प्रायु कर्म के २ (देवाय, नरकायु ये २) नामकम तीर्थकर प्रकृति और प्राहारकतिक इनका बन्ध जिस के है, (तीर्थकर प्रकृति १, वैक्रियिक द्विक २, देवद्धिक २, गुण स्थान में प्रारम्भ होता है उस गुण स्थान में निरन्तर नरकद्विक २, माहारकर्तिक २, ये है) इस प्रकार २+१ (प्रत्येक समय में) बंध होता रहता है इसलिये इसको =११ जानना। निरन्तर नन्ध कहा है। ३१. प्रापका अथवा अन्य प्रकृति का उबम होता पायुबंध होने का कान एक अन्तर्मुहूर्त का है उस हमा अथवा नहीं हो तो भी जिस प्रति का बंध होता एक अन्तर्मुहूर्त में बंध हो तो वह अन्तर्मुहूतं पूर्ण होने है ऐसो प्रकृतियां ८२ हैं सक पायु का बंध सतत होता रहता है इसलिये उसको नाबराय के मत्थानपुद्धिमादि ५ प्रकृति, वेदनीय निरन्तर बंष कहा है पायू बध का काल १, अपकर्षण में के २. मोहनीय के २५ (कषाय १६ नोकषाय हये २५)पायु में कभी भी आसा है। कर्म के २ (मनुष्यायु, तिर्यंचायु ये २) नामकर्म ४६ (तिर्यच गति १, मनुष्यगति १, एकेन्द्रियादि जाति ५, औदारिक शरीर १३. सान्तर बंध प्रकृतिया मर्यात जिनका की १.प्रौ. अंगोपांग १,संहनन ६, संस्थान ६, तिर्यच मत्या- होता है और कभी नहीं भी होता है ऐसी प्रकृतिमा ३४ हैअपनी मनष्य गत्यानपूर्वी १, उपधात १, परधात १, अमाता वेदनीय १, मोहनीय के ४ नासक वेद १, प्रातप१. उद्योत १.उच्छवास १, विहायोगति २, अस १, स्त्रीवेद १, परति १, शोक १,ये ४१ नाम कर्म के ही स्थाबर १, बादर १, सूक्ष्म १, पर्याप्त १, अपर्याप्त १, (नरकद्विक २, एकेन्द्रियादि जाति ४, वन वृषभ नाराच प्रत्येक साधारण १, सुभग १, दुर्भग १, सुस्वर १, बिना शेष संहनन ५, समचतुरन बिना शेष संस्थान दस्बर १, प्रादेम १, अनादेय १, यश: कीति १, अयशः अप्रशस्त विहायोगति १, पातप १, उद्योत १, स्थावर कोति १, ये ४६) गोत्र कर्म के (उच्चगोत्र, नीचगोत्र) दशक १०, स्थावर १, मूक्ष्म १, अपर्याप्त १, साधारण इस प्रकार ५+२+२५+२+४६+२=८२ जानना, १, अस्थिर १, प्रशुभ १. दुभंग १, दु:स्वर १, प्रनादेय (देखो गो० २.० गा० ४०२-४०३) । १, अयशः कीति १. ये १०) इस प्रकार १+४+२६ =३४ जानना। ३२. निरातर बन्ध होने वाली प्रकृतियाँ ५४ है शानावरणीय के ५, दर्शनावरणीय के १, मोहनीय ३४ निरन्तर और सान्तर बंध होने वाली प्रकृतिया के १६ (भिध्यात्व प्रकृति १, कषाय १६, भय-जुगुप्सा २ में ये १६) आयु कर्म के ४, नामकर्म के १२ (तंजस १, साता बेदनीय १, हास्य-रति२, पुरुष वेदनाम कारण १, भगुरुलघु १, उपघ त १, निर्माण १, स्पादि कर्म के २६ (तियंचद्विक २, मनुष्यद्विक २, देवतिक २,
SR No.090115
Book TitleChautis Sthan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAadisagarmuni
PublisherUlfatrayji Jain Haryana
Publication Year1968
Total Pages874
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & Karm
File Size16 MB
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