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________________ ( ७१२ ) प्रकृति जानना । संस्थान के ६, रस, गंध २० बाकी अर्थात् पुगल में उदय होने ाले शरीर के ५, बंधन के ५ संघात के ५ अंगोपांग के ३, संहनन के ६, स्पर्श, वर्ण ५ निर्माण १, भातप १, उद्योत ९, स्थिर १, अस्थिर १ शुभ अशुभ १ प्रत्येक १ साधारण १. अगुरुलघु १, उपघात, परवात १ ये सब मिलकर ६२ प्रकृति जानना । १५. भाव विपाकी कृतियां ४ हैं - नरकायु १, तिर्यंच प्रायु १ मनुष्यायु १, देवायु १ मे ४ प्रकृति जानमा १६. क्षेत्र विपाकी प्रकृतियां ४ हैं - नरकगत्यानुपूर्वी t. तिर्यच गत्यानुपूर्वी मनुष्यत्यापूर्वी १ देवगत्यानुपूर्वी १ मे ४ थानुपूर्वी प्रकृति जानना | ७. जीव विपाकी प्रकृतियां ७८ हैं-वाति कर्म के प्रकृति ४७ वेदनीय के २, गोत्रकर्म के २, नामकर्म के २७ (तीर्थंकर प्र० १ उच्छवास १, बादर १, सूक्ष्म १, पर्याप्त १ अपर्याप्त १, सुस्वर १, दु:स्वर १, प्रादेय १, अनादेव १ यशः कीर्ति १, प्रयशः कीर्ति १, त्रस १, स्थावर १, प्रशस्त और अप्रशस्त विहायोगति २, सुभग १, दुभंग १, गति ४, एकेन्द्रियादि जाति नामकर्म, ये२७) ये सब मिलकर ७८ जानना । इस प्रकार सब मिलकर ६२+४+४+७८= १४८ प्रकृति होते हैं । (देखो मो० क० गा० ४७ से ५१ ) १८. सावि- श्रनाविध वन्यध्रुव रूप चारों प्रकार के iss होने वाली प्रकृतियां - ज्ञानावरणीय ४ दर्शनावरसीय है, मोहनीय २६, नामकर्म के ६७, गोत्रकर्म के २, अन्तराम के ५ ये ११४ प्रकृतियों का बंध चारों प्रकार का होता है। १६ मनाविध व मध व रूप होन प्रकार का मंत्र वेदनीय कर्म का होता है। उपशम श्रेणी चढ़ते समय श्रीर नीचे उतरते समय सातावेदनीय का सतत बंध होता रहता है इसलिये सादि बंध नहीं होता । २०. सावि और प्रभु वरूप दो प्रकार का संघ होने वाली एवं में एक समय, दो समय या उत्कृष्ट आठ समय में प्रयुकर्म का बंध होता है इसलिये सादि और हर समय (आयु कर्म के भाग में) अन्तर्मुहूर्त तक ही होता है इसलिये प्रभुष है । २१ सादि बब- ज्ञानावरण को पंच प्रकृतियों का बफ किसी जीव के १७ वे गुण स्थान तक अव्याहत होता था, जब वह जीव ११ये गुण स्थान में गया तब बंध का अभाव हुआ, पीछे ११वे गुह० से च्युत होकर (पढ़कर) फिर १० गु० में श्राया तब ज्ञानावरण की पांच कृतियों का पुनः बंध हुआ ऐसा बंध सादि बंध कमाता है । २२ दावि बंध- दसवें गुण स्थान वाला जीव जब तक ११ गुर० में प्राप्त नहीं हुआ तब तक ज्ञानावरण का श्रनादि काल से उसका बंध चला आता है इसलिये यह अनादि बंध है। (देखो गो० क० गा० १२ - १२३ ) १३. प्र. प्रकृतियां ४७ हैं— बंषव्युच्छित्ति होने तक जिसका बंध समय समय को होता है वह ध्रुव बंध कहलाता है। इसका ध्रुव प्रकृति ४७ है। ज्ञानारणीय के ५, दर्शनावरणीय के 2 मोहनीय के मिथ्यात्व १, नचनो कषायों में से भय और जुगुप्सा ये २ मिलकर १८ अंतराय के ५, और नामकर्म के कार्मार १, अगुरुलघु १, उपघात " (तेजस १, निर्माण १,
SR No.090115
Book TitleChautis Sthan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAadisagarmuni
PublisherUlfatrayji Jain Haryana
Publication Year1968
Total Pages874
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & Karm
File Size16 MB
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