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________________ रस ५ । (मीठा, कच्छवा, खट्टा, फपायला, तिक्त (चरपरा) १२. प्रशस्त (पुण्यरुप) प्रकृतियां ६ हैं - साताये ५) स्पर्श ८ । (कोमल, कठोर, हलका, भारी, शीत, वेदनीय १, लियंचायु १, मनुष्या १, देवायू १, उच्चगोत्र उष्णु, स्निग्ध (चिकमा), रुक्ष, मे ८) प्रानुपूर्वी ४. १, मनु यादव, देवडिक २. पन्द्रय जासि १, शरीर ५. (नरकगत्यानुपूर्वी, तियं चगत्यानुपूर्वी. मनुष्यगत्यानु:, बंधन ५, संधःत ५. अगोपाग ३, शुभ-स्पर्श-रस-गंध-वरणं देवगत्यानपूर्वी ये ४) विहायोमति २। (प्रशस्त विहायोगति, ऐ२०. समचतुरल संस्थान, बसवषभनाराच संहनन १. अप्रशस्त विहायोगति ये २) ये ६५ पिंड प्रकृति जानना। अगुरुलघु १, परषात १. उच्चपास १. प्रातफ १, उधोत १, प्रशस्तविहायोगति १, वस१, बाबर १, पर्याप्त १, अपिड प्रकृतियाँ ऊपर बंध प्रकृतियों में कहे हए प्रत्येक शरीर १, स्थिर १. शुभ १, सुभग १. सुस्वर १. अनुसार जानना। इस प्रकार नामकर्म के ६५+1 =६३ आदेय १, यशः कौति १, निर्माण १, तीर्थकर १ स . प्रकृति जानना । गोत्रकर्म के २, अन्तरायकर्म के ५ ये प्रकार ६८ प्रकृतियां भेद की अपेक्षा से प्रशस्त पृण्यरूप सब मिलकर सत्य प्रकृतियां १४८ जानना । हैं, अभेद विवक्षा से वंधन ५. संघात ५, स्वर्गादिक १६ ये २६ घटाने से ४२प्रकृति प्रशस्त-पूण्य रूप जानना । ८, पति या प्रकृति ४७ हैं . शामावरणीय के ५, दर्शननावरणीय केह, मोहनीय के २८, अन्तराय के ५ तत्वार्थ सुत्र प्र० ८ देखो। 'सधः शुभायुर्नामगोत्राहि. ये ४७ जानना। पुण्यम् ॥२५॥' (देखो गो० का गा० ४१ - ४२ और १६४) १. सबंघातिया प्रकृति २१ हैं—केवल ज्ञानावरणीय १, दर्शनावरणीय के ६ (केवल दर्शनावर मणीय १, निद्रा १३. अप्रशस्त (पापरूप प्रकृनिया १०० है ---वाति कर्म के सब ४७ प्रकृतियां प्रशस्त ही है। प्रसातावेदनीय के ५ वे ६) कषाय १२ (अनतानुबंधी कषाय ४ । १, नरकायु,नीचगोत्र १. नरकटिक २. तियंचद्विक २. अप्रत्याख्यान कषाय ४, प्रत्याख्यान कषाय ४ ये १२) एकेन्टियादि जाति ४, न्यग्रोधपरिमंडलादि संत्य के मिथ्याव१ये २० प्रकृतियां बंध को अपेक्षा जानना मोर संस्थान.नारानादित्य के संहनन ५ अशुभ स्पचामम्यमिथ्यात्व प्रकृति १ सना और उदय की अपेक्षा का रस-गंध-वर्ण ये २०, उपघात, अप्रशस्य विहायोगति १, से जानना । इस प्रकार सबंधातिया प्रकृति १ जानना। म निना। स्थावर १. सूक्ष्म १, अपर्याप्त १ साधारण शरीर १, सम्वमिथ्याय प्रकृति को जात्यंतर सर्वघाति कहते अस्थिर १, अशु. १. दुभंग १, दुःस्वर १. अनादेय १, हैं। कारण मिथ्यात्वादि प्रकृति के समान यह प्रकृति अयशः कीर्ति १ इस प्रकार से १०० प्रकृतियां उदयरूप पूर्ण रूप से घात नहीं करता है और यह प्रकृति बंधयोग्य प्रशस्त है। भेदविवक्षा से बंघरूप ६८ प्रकृतियां हैं। नहीं है (देखो गो० के गा० ३६ । कारण ४७ प्रातिया प्रकृतियों में सम्यमिथ्यात्व और १. देशघाति प्रकृतियां २६ है—ज्ञानामरणीय के सम्यक्त्व प्रवृति इन दो प्रकृत्तियों का बंध नहीं होता। मिति-श्रुत-अवधि मनः पर्यय ज्ञानावरणीय ये ४) दर्शना अभेदविवक्षा में स्पादि २० प्रकृतियों में से १६ प्रकृति वरपीय के ३। (प्रचक्षदर्शन, चक्षदर्शन, अवधि घटाने से ८२ प्र० बंधरूप रहते है और उदयरूप -४ ये ३) सम्यक्त्व प्रकृति, संज्वलन कषाय ४. नवनोकपाय प्रकृति और सत्तारूप १०० प्रकृति रहते हैं। इनमें ६५ ६, अन्तराय प्रकृति ५ ये २६ देशघाति प्रकृति जानना। पुण्यप्रकृति मिलाने से १०० +६८ -१६८ होते है। इनमें (देखो गो० क. गा० ४०)। से पुण्य और पापरूप २० प्रकृतिया कम करने से १६८-२-१४० + रहते हैं (देखो गो- क. गा. १. प्राघाति प्रकृतियां १ १ है--वेदनं अकर्म के २, ४३-४४ और १६४) आयुकर्म के ४, नामकर्म के ६३, गोत्रकर्म के २ ये सब मिलकर १०१ होते हैं। १४. पुड्यात शिपायो प्राति ६२ है - पुद्गल
SR No.090115
Book TitleChautis Sthan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAadisagarmuni
PublisherUlfatrayji Jain Haryana
Publication Year1968
Total Pages874
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & Karm
File Size16 MB
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