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________________ ( ७१० ) की जाती है । इसलिये बंधन ५, सघात ५, स्पर्शादिक १६ १० मिलकर २६ प्रकृतियों का उदय गिनती में नहीं (स्पादि २० प्रकृतियों में में स्पर्श १, रस १, गंध १, माती इसलिये ६३ प्रकृतियों में से १६ प्र. घटाने से वर्ण १ ये बंध में मिने जाते हैं इसलिये ये ४ छोड़कर ९३-२६ । ६७ प्रतिमा उदय योग्य रहती है। गोत्रशेष १६ से २६ प्रतियां १५ प्रकृतियों में से घटाकर कर्म के २ अतरायाम के ५ इस प्रकार ५+६+२+ शेष ६७ प्रकृतियों का बंध माना जाता है, वास..न में २८+४+६ +२ . ५-१२२ होते हैं। अर्थात कर्म १३ प्रकृतियों का बंध होता है परन्तु बंध की हिसाब में प्रकृति १४८ में से ५६ प्रकृत्तियां घटाने से १२२ उदय२६ प्रकृनियों की गिनती नहीं है इसलिये ६७ प्रकृतियाँ योग्य प्रकृतियां रहती हैं। वास्तव में १४८ प्र. का उदय बंध योग्य माने जाते हैं। रहता है । २६ प्रकृतियां दूसरे प्रकृतियों में गभित होने ___७) गोत्र कर्म २ है --(१ उच्च गोत्र, १ नीच गोत्र, से वे गिनती में नहीं याती। इसलिये उदय योग्य १२२ ये २ जानना) प्र. मानते हैं। ६. अनुदय प्रकृतियां २६ है-नाम कर्म की २६ (0) अतराय ५ प्रकार का है-दामांतराय, लाभांत प्रकृति (बंधन और स्पर्शादिक २० प्र० में से स्पर्श-रसराय, भोगतिराय, उपभोगांलराय, वीर्या तराय ये ५ प्रकार गन्ध-वरणं ये ४ वटाकर शेष १६ मिलाकर २६) अनुपय के जानना) जानना (देखो गोक-गा० ३६-३७-३७) । सब १४ कर्म प्रकृतियों में से दर्शन मोहनीम की ७. सत्व प्रकृतियां १४ है - ज्ञानावरणीय के ४ २ प्रकृनियां-(सम्बइपिथ्यात्व १. सम्यक्त्व प्रकृति १ये २) दर्शनावरणीय के ६, बेदनीय के २, मोहनीय के २८, बंध योग्य नहीं हैं इसलिये ये २ घटाने से १४६ बंध योग्य पायुकर्म के ४, नामकम के ६३, (पिंड प्रकृति १४ के प्रकृतियां रहती हैं, परन्तु उनमें रो २६ प्रकृतियां बंध मैं उत्तर भेद ६५ गति ४ (नरकगति, तिथंचगति, मनग्यनहीं मानते हैं। इसलिये वह भी कम करके अर्थात १४८ गति.) जाति नामकर्म ५ (एकन्द्रिय द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय, --२-१४६-२६-१२० प्रकृतियां बंध योग्य माने चतुरिन्द्रिम, पंचेन्द्रिय जाति ये ५), शरीर नामकर्म ५ गये हैं । (देखो गो. क. गा०२३ से ३५)। (प्रोदारिक, बेक्रिविक, पाहारक, तंजस माणि कामणि प्रबंध प्रतियां है दर्शनमोहनीय की २ ये ५) बंधन ५ (प्रौदारिक शरीर बंधन, बैकियिक शरीर (सम्यङमिथ्यात्व. सम्यक्त्त प्रकृति ये २), पौर नामकर्म बंधन ये संघात ५ (प्रौदारिक शरीर संघात, कार्माणकी २६ (बंधन ५, संघात ५, स्पादि २० में से स्पर्श-रस शरीर ara शरीर बंधन ये ५) सधात ५ (ग्रौदारिक दारीर संघात, गंध-ब ये ४ वटाकर शेष १६) चे २८ जानना (देखो क्रियिक शरीर संघात, आहारक शरीर संघात, तेजस गो० क. मा० ३४-३५) । शरीर संघात, कार्मारा शरीर संघात ये ५) सस्थान ५. उदय योग्य प्रकृलिया १२२ है-ज्ञानावरणीय के (समचतुरस्र संस्थान, न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थान. कन्जक ५, दर्शनावरणीय के ६, वेदनीय के २ मोहनीय के २८ सस्थान, स्वाति संस्थान, बामन संस्थान, हुंडक सस्थान दिनमोहनीय ३ चारिखमोहनीय २५ ये २८), भायु- ये ६) अगोपांग ३ (प्रौदारिक शरीर अंगोपांग. क्रियिक कर्म के ४, नामकर्म के ६७ (शरीर ५, बंधन ५. संघात शरीर अगोपांग, प्राहरक शरीर अंगोपांग, ये ३ जानना। ५ इन १५ में से बंधन +संघात ये १०, पांच पारीर में तैजस और कार्मारा शरीर को अंगोपांग नहीं रहते हैं। गभित होने से ये १० प्रकृतियां घट गये और स्पर्थ , संहनन ६ (बचबूषभ नाराच संहनन, बज्रवाराच संहनन, रस ५ गंध २. वर्ग ५ इन २० में से फल स्पर्श १, रस नाराच संहनन, अर्ध नाराच महनन कीलित (कीलक) १. गन्ध १, वणं ये ४ प्रकृति गिनती में प्राते (संहनन, प्रसंप्राप्ता पाटिष सहनन ये ६) वणं ५। (श्वेत हैं। इसलिये इन ४ प्रकुतियों को २० में से घटाने से शेष पाटरा) पीत (पिबका), हरित या नील, रक्त (लाल), १६ रहते हैं । इन १६ और मंधन के ५, संघात के ५ इन कृष्ण (काला) ये ५) गंध २ । (सुगध और दुगंध ये )२
SR No.090115
Book TitleChautis Sthan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAadisagarmuni
PublisherUlfatrayji Jain Haryana
Publication Year1968
Total Pages874
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & Karm
File Size16 MB
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