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________________ षटते चौदह तई, __ मनुष्य लक्ष चौदह स्थानो ॥६७।। कुलकोडि प्रथम में जान, सब वुजे ते चतु लग चऊ । पंचम नर पशू सकल गन, मागे मनुष्य जान सक ॥६८।। केवल समुद्घात मनुष्य सर्वलोक स्पशन जान ॥६२।। तेतीस सागर देव-नारकी, तियंच मनुष्य त्रिपल्य बखान । नरक-दव की जघन्यकाल, वर्ष हजार दस ही जान ॥६॥ तिर्यंच-मनुष्य की जघन्यकाल, ___ अन्तर्मुहूर्त हो जान। कर्मकार जो मोक्ष पधारे, काल अनन्तानन्त ही जान ॥६॥ नरक-देव-मनुष्य-तियंच की, अन्तर्मुहूर्त ही अन्तर जान । उत्तम अन्तर भेद बहुत है, चौतीस स्थामक दर्शन में जान ।।६।। चौरासी लक्ष योनि, प्रथम गुण स्थाने सारी । दूजे ते चौ तई, लाख छब्बीस बिधारी ।।६६।। पंचम में नर पशु, लाख अठ्ठारह जानो। ( छन्द-दोहा ) में सक, ( नी , यामें तू नहीं जीव । तेरा-दर्शन-ज्ञान गुरण, तामें रहो सदीव ॥६॥ दक्षिण महाराष्ट्र देश में, उत्तर-सतारा जिल्हा जान । फलटण नगर ग्रादि-जिन मन्दिर, यह रचना बनी विधान ॥७॥ श्री आदिनाथ जिन भगवान के, चरखारविन्द में शिर नमाय । श्री प्रादि सागर मुनि चरणपे, प्रणाम करे पंडित उलफतराय ।।०१।।
SR No.090115
Book TitleChautis Sthan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAadisagarmuni
PublisherUlfatrayji Jain Haryana
Publication Year1968
Total Pages874
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & Karm
File Size16 MB
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