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________________ (२२) चौतीस स्थान दर्शन - - (१७) मनोविषय-अविरति-मन के (४) क्षायिक दर्शन-दर्शना बरण कार्म के विषय से (सन्मान, आराम की चाह आदि से) क्षय से जो दर्शन प्रगट हो उसे क्षायिक दर्शन बिरक्त न होने को मनविषय-अविरति (केवल दर्शन) कहते हैं। कहते हैं। {५) क्षायिक सम्यक्त्व-इस का वर्णन (१८) से (४२) कषाय २५. इनका होचका हैं। वर्णन कपाश मार्गणा में हो चुका है। (६) क्षायिक चारित्र-चारित्र मोहनीय (४३) से (५७) योग १५. इनवा की २१ प्रकतियों के क्षयमे जो चारित्र हो उसे वर्णन योगमार्गणा में हो चुका है। , क्षायिक चारित्र कहते हैं। २३. भाव (७) क्षायिक दान-जो दानान्तराय के - भाव-अपने प्रतिपक्षी कर्मों के उपशम क्षय से प्रगट हो उसे क्षायिक दान कहते हैं । आदि होने पर जो गुण (स्वभाव याउदय की (८) क्षायिक लाभ-जो लाभान्त राय के अपेक्षा विभाव रूप) प्रगट हो उन्हें भाव क्षय से प्रगट हो उसे क्षायिक लाभ कहते हैं । कहते हैं--इनका उपादान कारण जीब है। (९) क्षायिक भोग-जो भोगान्तराय के अर्थात् ये जीव में ही होते हैं। अन्य द्रव्य में क्षय से प्रगट हो उसे क्षायिक भोग कहते हैं । नहींहोते; इसलिये ये जीव के निज तत्व या (१०) क्षायिक उपभोग-जो उपभोगाअसाधारण भाव कहलाते हैं । ये भाव ५३ होते तराय के क्षय से प्रगट हो उमें क्षायिक १. औपशमिक भाव २ है उपभोग कहते हैं। {११) क्षायिक वीर्य-जो वीर्यान्तराय के औपशामिक-अपने प्रतिपक्षी कर्मों के क्षय से प्रगट हो उसे आयिक वीर्य कहते हैं । उपशम होने पर जो गुण (भाव) प्रगट हों उन्हें औपशमिक भाव कहते हैं । ३. क्षायोपशमिक (मिश्र) (१) औपशमिक सम्यक्त्व-इस का वर्णन भाव १८ है हो चुका हैं । (२) औपशमिक चारित्र-चारित्र मोह क्षायोयमिक भाव-अपने प्रतिपक्षी कर्मों मीय की २१ प्रकृतियों के उपशम से जो चारित्र में से किन्हीं--कर्मों के स्पर्द्धको के उदयाभावी हो उसे औपशमिक चारित्र कहते हैं। क्षय से किन्हीं स्पर्द्धकों के उपशम से व किन्हीं स्पर्द्धकों के उदय से जो भाव प्रगट हो उन्हें २. क्षायिक भाव ९ है क्षायोपशमिक (मिथ) भाव कहते हैं । क्षायिक भाव-अपने प्रतिपक्षी कर्मों के (१२), (१३), (१४) कुज्ञान ३-इनका क्षय से जो गुण (भाव) प्रगट हों उन्हें क्षायिक वर्णन हो चुका हैं। भाव कहते हैं । (१५) से (१८) ज्ञान ४-इनका वर्णन (३) क्षायिक ज्ञान-ज्ञानावरण कर्म के हो चुका हैं। क्षय से जो ज्ञान प्रगट हो उसे क्षायिक ज्ञान - (१९, २०, २१) दर्शन ३--इनका भी (केवल ज्ञान) कहते हैं । वर्णन हो चुका हैं ।
SR No.090115
Book TitleChautis Sthan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAadisagarmuni
PublisherUlfatrayji Jain Haryana
Publication Year1968
Total Pages874
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & Karm
File Size16 MB
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