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________________ चाँतीस स्थान दर्शन (१७) (५) श्रुतज्ञान मतिज्ञान से जाने हुये होनेपर फिर से प्रतों के पालन करने को छेदोपदार्थ के संबंध में अन्य विशेष जानने को श्रुत- स्थापना संयम कहते हैं। भान कहते हैं । ५) परिहार विशुद्धिसंयम-जिसमें हिंसा (६) अवधि ज्ञान-इन्द्रिय और मन की का परिवार प्रधान हो ऐने गद्धिमाप्त मंयम सहायता के बिना, आत्मीय शक्ति से रूपी को परिहारविशति संयम कहते हैं। पदार्थों को द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादा (६) सूक्ष्म पाराय मंयम-मूक्ष्म कषाय लेकर जानने को अबधिज्ञान कहते हैं । (सूक्ष्मलोभ) वाले जीवों के जो संयम होता है (७) मनापय ज्ञान-दूसरे के मन में उसे सूक्ष्मसापराय संयम कहते हैं । तिष्ठते हुए (स्थित) रूपी पदार्थों को इन्द्रिय (७) यथास्पात संयम-कपाय के अभाव और मन की सहायता के बिना आत्मीय में जो आत्मा का अनुष्ठान होता है उसमें शक्ति से जानने को मनःपर्यय ज्ञान कहते हैं। निवास करने को यथाव्यात संयम कहते हैं । (0) केवलज्ञान-तीन लोक, तीन काल- असंयम-संयम-संयमासंयम रहित-सिद्ध वर्ती समस्त द्रव्य पर्यायों को एक साथ स्पष्ट भगवान् सदा अपने शुद्ध वरूप में स्थित है। जानना केवल ज्ञान है। उनके ये नीनों नहीं पाये जाने । १३. संयम-मार्गणा १४. दर्शन-मार्गणा संयम-अहिंसादि पंच व्रत धारण करना, दर्शन-आत्माभिमुन अबलोकन को दर्शन ईर्यापथ आदि पंच समितियों का पालन करना, कहते हैं । इराकी मार्गणा ४ है। क्रोधादि कषाओं का निग्रह करना, मनोयोग, (:) अवक्षःसन-चरिमिस के अलावा वचनयोग, काययोग इन तीनों योगों को रोकना, अन्य इन्द्रिय व मन में उत्पन्न होनेवाले दर्शन पांचों इन्द्रियों का विजय करना सो मंयम है। को अचक्षुदर्शन कहते है । इसकी मार्गणा +१ है। . २) चक्षुदर्शन-चगिन्द्रियजन्त्र ज्ञान (१) असंयम-जहां किसी प्रकार के से पहले होनेवाले दर्शन को चक्षदर्शन संयम या संयमासंयम का लेश भी न हो उसे कहते हैं। असंयम कहते हैं । (३) अग्दिर्शन-अवधिज्ञान से पहले (२) संयमासंयम-जिनके त्रसकी अवि- होनेवाले दर्शन को अवधिदर्शन कहते हैं। रति का त्याग हो चुका हो, जिनके अणुव्रत का (४) केवदर्शन-केबलज्ञान के साथधारण है उनके चारित्र को संयमासंयम ___ साथ होनेवाले दर्शन को केवलदर्शन कहते हैं । कहते हैं। (३) सामायिक संयम-सब प्रकार की १५, लेश्या-मार्गणा अविरति से विरक्त होना, और समताभाव लेश्या-कषाय से अनुरंजित योगप्रवृति धारण करना, सामायिक संयम है। को लेश्या कहते हैं । इसकी मार्गणा ६+१ है । (४) छेचोपस्थापना संयम-भेदरूप से (१) कृष्णलेश्या-जोत्र क्रोध करनेवाला व्रत के धारण करने को या यतों में छेद (भंग) हो, बैर को न छोड़े लड़ने का जिसका स्वभाव
SR No.090115
Book TitleChautis Sthan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAadisagarmuni
PublisherUlfatrayji Jain Haryana
Publication Year1968
Total Pages874
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & Karm
File Size16 MB
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