SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 42
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चौंतीस स्थान दर्शन अयोग-अयोग केवली व सिद्ध भगवान के योग नहीं होता है । योग रहित अवस्था को अयोग कहते है। १०. वेद मार्गणा वेव-पुरुष वेद, स्त्री वेद, नपुंसक वेद के उदय से उत्पन्न हुई मैथुनकी अभिलाषा को वेद कहते है । इसकी मार्गणा ३+१ है। (१) नपुंसकवेद-जिससे स्त्री और पुरुष इन दोनों के साथ रमण करने का भाव हो उसे नपुंसकवेद कहते हैं। (२) स्त्रीवेव-जिससे पुरुष के साथ रमण करने की इच्छा हो उसे स्त्रीवेद कहते हैं। (३) पुरुषवेद-जिससे स्त्री के साथ रमण करने की इच्छा हो उसे पुवेद या पुरुषवेद कहते है। अपगतवेद-जहां वेद का अभाव हो उसे अपगतवेद जानना । ११. कषाय-मार्गणा कषाय-जो आत्मा के सम्यक्त्व, देशचारित्र, सकलचारित्र, और यथाख्यातचारित्ररूप गुण को घाते, उसे कयाय कहते हैं। इसकी मार्गणा २५+१ है। (१) से (४) अनन्तानुबंधी क्रोत्र, मान, माया, लोभ-उन्हें कहते हैं जो आत्मा के सम्यक्त्य गुण को पाते। (५) से (८) अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, मान, माया, लोभ-उन्हें कहते हैं जो देशप्रारित्र को घातें. (देशचारित्र धावक, पंचमगुण-स्थानवर्ती जीव के होता है) (९) से (१२) प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ-उन्हें कहते हैं जो सकल चारित्र को घातें । (सकल चारित्र मुनियों को होता है) (१३) से १६) संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ--उन्हें कहते हैं जो यथाख्यात चारित्र को घातें । (यथाख्यात चारित्र ११, १२, १३, १४ वे गुणस्थान में होता है) १७) हास्य-हंसने के परिणाम को हास्य कहते हैं। (१८) रति-इष्ट पदार्थ में प्रीति करने को रति कहते हैं। (१९) अरलि-अनिष्ट पदार्थों में अप्रीति करने को अरति कहते हैं। (२०) शोक-रंज के परिणाम को शोक कहते हैं । (२१) भय--डर को भग्य कहते हैं। (१२) जुगुप्सा-लानि को जुगुप्सा कहते हैं । (२३-२४-२५) नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, पुरुषवेद-इन हरेक का वर्णन हो चुका है। अकषाय-कषाय के अभाव को अकपाय कहते हैं। १२. ज्ञान-मार्गणा ज्ञान-वस्तु के जानने को ज्ञान कहते हैं । इसकी मार्गणा ८ है। (१) कुमतिज्ञान-सम्यक्त्व के म होने पर होनेवाले मतिज्ञानको कुमतिज्ञान कहते हैं । (२) कुवतज्ञान-सम्यक्त्व के न होने पर होने वाले श्रुतज्ञान को कुश्रुतज्ञान कहते हैं । (३) कुअघि शान-सम्यक्त्व के न होने पर होनेवाले अवधिज्ञान को कुअवधिज्ञान कहते हैं । इसका दूसरा नाम विभङ्ग-अवधिज्ञान है। (४) मतिज्ञान-इन्द्रिय और मन के निमित्त से उत्पन्न होनेवाले ज्ञान को मतिझान कहते हैं।
SR No.090115
Book TitleChautis Sthan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAadisagarmuni
PublisherUlfatrayji Jain Haryana
Publication Year1968
Total Pages874
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & Karm
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy