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________________ चौंतीस स्थान दर्शन ।' उसके निमित्त से होनेवाले योग को असत्यमनो योग कहते है। (३) उभयमनो योग-उभय (सत्य, असत्य दोनों) मन के निमित्त से होनेवाले योग को उभयमनो योग कहते है । (४) अनभयमनो योग-अनुभय (न सत्य न असत्य) मन के निमित्त से होनेवाले योग को अनुभयमनो योग कहते है। (५) सत्यवचन योग-सत्यवचन के निमित्त से होने वाले योग को सत्यवचन योग कहते है। (६) असत्यवचन योग-असत्यवचन के निमित्त से होनेवाले योग को असत्यवचन योग कहते है । (७) उभयवचन योग-उभय (सत्य, असत्य दोनों) बचन के निमित्त से होनेवाले योग को उभयवचन योग कहते है । (८) अनुभयवचन योग-अनुभय(न सत्य व असत्य) वचन के निमित्त से होनेवाले योग को अनुभयवचन योग कहते है । (९) औदारिक काययोग-मनुप्य तियनों के शरीर को औदारिक शरीर कहते है, उसके निमित्त से जो योग होता है उसे औदारिक काय योग कहते है। (१०) औवारिक मिश्रकाय योग-कोई प्राणी मरकर मनुष्य या नियंत्र गति में स्थानपर पहुंचा, वहां पहुंचते ही वह औदारिक वर्गणाओं को ग्रहण करने लगता है उस समय से अन्तमुहूर्त तक (जब तक शरीर पर्याप्ति पूर्ण नहीं होती) कार्माण मिथित औदारिक वर्गणाओं के द्वारा उत्पन्न हुई शक्ति से जीव के प्रदेश में परिस्पंद के लिये जो उस जीव का प्रयत्न होता है उसे भौदारिक मिश्रकाय योग कहते है। (११) वैयिक काय योग-देव व नारकीयों के शरीर को क्रियक काययोग कहते है । उसके निमित्त से जो योग होता है उसे वैक्रियक काययोग कहते है। (१२) वैकियक मिश्रकाय योग-कोई मनुष्य या तियच मरकर देव या नरक गति में स्थानपर पहुंचा, वहां पहुंचते ही वह वैक्रियक वर्गणाओं को ग्रहण करने लगता है, उस समय से अन्तर्मुहर्त तक (जब तक गरीर पर्याप्ति पूर्ण नहीं होती) कार्माण मिथित वक्रियक वर्गणाओं के द्वारा उत्पन्न हुई शक्ति से जीव के प्रदेशों में परिस्पंद के लिये जो उस जीव का प्रयत्न होता है उसे बैंक्रियक मिश्रकाय योग कहते है । (१३) आहारक काययोग-सूक्ष्म तत्वमें संदेह होने पर या तीर्थ वन्दनादि के निमित्त आहारक ऋद्धिवाले छठे गुणस्थानवर्ती मुनियों के मस्तिष्क से एक हाथ का धवल, शुभ, व्याघात रहित आहारक शरीर निकलता है उसे आहारक काययोग कहते है। उसके निमितसे होनेवाले योग को आहारक काय योग कहते है। (१४) आहारक मिश्रकाय योग-आहारक शरीर की पर्याप्ति जब तक पूर्ण नहीं होती तब तक औदारिक व आहारक वर्गणाओं के द्वारा उत्पन्न हुई शक्ति से जीव के प्रदेशों में परिस्पंद के लिये जो प्रयत्न होता है उसे आहारक मिथकाय योग कहते है। (१५) कार्माणकाय योग-मोडेवाली विग्रह गति को प्राप्त चारों गतियों के जीवों के तथा प्रतर और लोकपूर्ण समुद्घात को प्राप्त केवली जिन के कार्माण काय होता है। उसके निमिन से होनेवाले योग को कार्माणकाय योग कहते है।
SR No.090115
Book TitleChautis Sthan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAadisagarmuni
PublisherUlfatrayji Jain Haryana
Publication Year1968
Total Pages874
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & Karm
File Size16 MB
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