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________________ (१८) चौतीस स्थान दर्शन हो, धर्म और दया से रहित हो, दुष्ट हो, जो किसी के वश न हो, ये लक्षण कृष्णलेश्या है ( २ ) नीललेश्या - काम करने में मन्द हो, स्वच्छन्द हो, कार्य करने में विवेकरहित हो, विषयों में लम्पट हो, कामी, मायाचारी. आलसी हो, दूसरे लोग जिसके अभिप्राय को सहसा नहीं जान सके, अति निद्रालु हो, दूसरों के ठगने में चतुर हो, परिग्रह में तीन लालसा हो, ये लक्षण नील लेश्या के है । (३) कापोत लेश्या - से, निन्दा करे, द्वेष करे, शोकाकुल हो, भयभीत हो, ईर्ष्या करे, दूसरों का तिरस्कार करे अपनी विविध प्रशंसा करे, दूसरे का विश्वास न करे स्तुति करनेवाले पर संतुष्ट होवे रण में मरण चाहे, स्तुति करनेवाले को खूब धन देवे अपना कार्य अकार्य न देखे । ये लक्षण कापोतलेश्या के है । (४) पीतलेश्या - कार्य, अकार्य, सेव्य, सेव्य को समझने वाला हो, सर्व-समदर्शी हो । दया -परायण हो, दानरत, कोमल परिणामी हो । ये लक्षण पीतलेश्या के है । (५) पलेश्या त्यागी, भद्र, उत्तम कार्य करनेवाला, सहनशील, साधु, गुरु, पुजारत हो । ये लक्षण पद्मलेश्या के है । (६) शुक्ललेश्या - पक्षपात न करे, निदान न बांधे, सब में समानता की दृष्टि रक्खे, इष्टराग अनिष्ट द्वेष न करे । ये लक्षण शुक्ललेश्या के है । १६. भव्यत्व - मार्गणा भव्यत्व-जिन जीवों के अनन्त चतुष्टयरूपसिद्धि व्यक्त होने की योग्यता हो वे भव्य है । उनके भाव को भव्यत्व कहते हैं । इसकी मार्गणा २०१ है । ( १ ) भव्य - इसका वर्णन ऊपर हो चुका है । (२) अभव्य - उक्त योग्यता के अभाव को अभव्यत्व कहते हैं । अनुभव सिंह जीव न भव्य है और न अभव्य है । - ९७. सम्यक्त्व - मार्गणा सम्यक्त्व - मोक्षमार्ग के प्रयोजनभूत तत्त्वों के यथार्थ ज्ञान को सम्यक्त्व कहते हैं। इसकी मार्गणा ६ है | (१) मिथ्यात्व - मिध्यात्व प्रकृति के उदय से तत्वों के अश्रद्धानरूप विपरीत अभिप्राय को मिथ्यात्व कहते हैं । ( २ ) सासादन सम्यक्त्व - सम्यक्त्व की विराबता होने पर अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय से यदि मिथ्यात्व का उदय न आये तो मिध्यात्व का उदय आने तक होनेवाला विपरीत आशय सासादन सम्यक्त्व कहलाता है । ( ३ ) सम्यग्मिथ्यात्व - सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से जो मिश्र परिणाम होता है, जिसे न तो सम्यक्त्वरूप ही कह सकते है और न मिध्यात्वरूप ही कह सकते है। किन्तु जो कुछ समीचीन व कुछ असमीचीन है उसे सम्यग्मिथ्यात्व कहते है । (४) उपशम सम्यक्त्व अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ, मिध्यात्व, सम्यमिथ्यात्व और सभ्यक् प्रकृति इन ७ प्रकृतियों के उपनाम से जो मभ्यक्त्व होता है उसे उपगम सम्यक्त्व कहते है । इसके एक प्रथमोपशम सम्यक्त्व और दूसरा द्वितीयोपशम सम्यक्त्व ऐसे दो भेद है ।
SR No.090115
Book TitleChautis Sthan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAadisagarmuni
PublisherUlfatrayji Jain Haryana
Publication Year1968
Total Pages874
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & Karm
File Size16 MB
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