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________________ ( 20 ) चौंतीस स्थान दर्शन 4 १. गुणस्थान और गुणस्थानों का स्वरूप गुणस्थान- मोह और योग के निमित्त से होनेवाली आत्मा के सम्यक्व और चारित्र गुणों की अवस्थाओं को गुणस्थान कहते है, यह गुणस्थान १४ होते हैं । ( १ ) मिथ्यात्व - मोक्ष मार्ग के प्रयोजन भूत जीवादि सात तत्त्वों में यथार्थ श्रद्धा न होने को मिथ्यात्व कहते है । मिथ्यात्व में जीव देह को आत्मा मानता है । तथा अन्य भी परपदार्थों को अपना मानता है । कषाय परिणामों से भिन्न ज्ञानमात्र आत्मा का अनुभवन नहीं कर सकता है | (२) सासादन या सासादन सम्यक्त्यउपशमसम्यक्त्व नष्ट हो जाने पर मिध्यात्वका उदय न आ पाने तक अनन्तानुवन्धी कपाय के उदयसे जो अयथार्थ भाव रहता है उसे सासा - दन सम्यक्त्व गुणस्थान कहते है । (३) मिश्र या सम्यग्मिथ्यात्व - जहां ऐसा परिणाम हो जो न केवल सम्यक्त्व रूप हो और न केवल मिध्यात्वरूप हो, किन्तु मिला हुआ हो उसे मिश्र या सम्यग्मिथ्यात्व ऋते है । (४) असंयत या अविरत सभ्यत्व - जहां सम्यग्दर्शन तो प्रगट हो गया हो, किन्तु किसी भी प्रकार का व्रत ( संयमासंयम या संयम ) न हुआ हो, उसे असंयत या अविरत सम्यक्त्व कहते है । इस गुणस्थान में उपशम-वेदकarfarera ये तीनों प्रकार के सभ्यक्त्व हो सकते है । (५) वैशसंयत या संयतासंयत या जहां सम्यग्दर्शन भी प्रगट हो गया देश हो और संयमासंयम भी हो गया हो उसे देश संयत या संयता संयत या देशविरत कहते है । ( ६ ) प्रमत्त या प्रमत्तविरत जहां महाव्रत का भी धारण हो चुका हो किन्तु संज्वलन कषायका उदय मंद न होने से प्रसाद हो वह प्रमत्त या प्रमत्तविरत है । (७) अप्रमत्त या अप्रमत्तविरत जहां संज्वलन कषाय का उदय मन्द होने से प्रमाद नहीं रहा उसे अप्रमत्त या अप्रमत्तविरत कहते है । इसके दो भेद है । १. स्वस्थान अप्रमत्त बिरत और २ रा सातिशय अप्रमत्तविरत, स्वस्थान अप्रमत्तविरत मुनि छठवें गुणस्थान में पहुंचते है और इस प्रकार छटं से सातवें में, और सातवें से छठे में परिणाम आते जाते रहते हैं । सातिशय अप्रमत्तविरत मुनि के अधःकरण - परिणाम होते है वे यदि चारित्र मोहनीयका उपशम प्रारंभ करते है तो उपशम श्रेणि चढ़ते है और यदि क्षय प्रारंभ करते है तो क्षपक श्रेणि चढ़ते है । सो वे दोनों ( उपशम या क्षपक श्रेणि चढ़नेवाले मुनि) आठवे गुणस्थान में पहुंचते है । सातिशय अप्रमत्तविरत मुनि के परिणाम का नाम अथःकरण इसलिये है कि इसके काल में विविक्षित समयवर्ती मुनि के परिणाम के सदृश कुछ पूर्व उत्तर समयवर्ती मुनियों के परिणाम हो सकते हैं । (८) अपूर्व करण - इस गुणस्थान में अगले अगले समय में अपूर्व अपूर्व परिणाम होते है, ये उपशमक और क्षपक दोनों तरह के होते है । इस परिणाम का अपूर्व करण नाम इस लिये भी है कि इसके काल में समान समयवर्ती मुनियों के परिणाम सदृशभी हो
SR No.090115
Book TitleChautis Sthan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAadisagarmuni
PublisherUlfatrayji Jain Haryana
Publication Year1968
Total Pages874
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & Karm
File Size16 MB
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