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________________ चौतीस स्थान दर्शन जांय, किन्तु विविक्षित समय में भिन्न ( पूर्व या उत्तर) समयवर्ती मुनियों के परिणाम विसदृश ही होंगे । इस गुणस्थान में प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धि होती है, कर्मों की स्थितिका घात होने लगता है, स्थितिबंध कम हो जाते है; बहुत सा अनुभाग नष्ट हो जाता है, असंख्यात गुणी प्रदेश निर्जरा होती है, अनेक अशुभ प्रकृतियां शुभ में बदल जाती है । ( ९ ) अनिवृत्तिकरण - इस गुणस्थान में चढ़ते हुये अधिक विशुद्ध परिणाम होते है, यह उपशमक और क्षपक दोनों प्रकार के होते है । इस परिणाम का अनिवृत्तिकरण नाम इस लिये है कि इसके काल में विविक्षित समय में जितने मुनि होंगे सबका समान ही परिणाम होगा. यहां भी भिन्न समयवालों के परिणाम विसदृश ही होंगे । इस गुणस्थान में चारित्र मोहनीय की २० प्रकृतियों का ( अप्रत्याख्यानावरण ४, प्रत्याख्यानावरण ४, संज्वलन ३, हास्यादि ९ ) उपशम या क्षय हो जाता है । (१०) सूक्ष्म सांप राय- नवमें गुणस्थान में होनेवाले उपशम या क्षय के बाद जब केवल संज्वलन सूक्ष्म लोभ रह जाता है. ऐसा जीव सूक्ष्म सांपराय गुणस्थानवर्ती कहा जाता है, इस गुणस्थान में सूक्ष्म सांपराय चारित्र होता है जिसके द्वारा अन्त में इस गुणस्थानवाला जीव सूक्ष्म लोभ का भी उपशम या क्षय कर देता है । (११) उपशांतमोह ( कषाय ) - समस्त मोहनीय कर्मका उपशम हो चुकते ही जीव उपशांत मोह गुणस्थानवर्ती हो जाता है. इस गुणस्थान में थथाख्यात चारित्र हो जाता है । किन्तु उपशम का काल समाप्त होते ही दशवें गुणस्थान में गिरना पड़ता है । या मरण हो (११) तो चौथे गुणस्थान में एकदम आना पड़ता है । (१२) क्षीणमोह ( कषाय ) - क्षपक श्रेणि से चढ़नेवाला मुनि ही समस्त मोहनीय के क्षय होते ही क्षीण मोह गुणस्थानवर्ती हो जाता है । इस गुणस्थान में यथाख्यात चारित्र हो जाता है । तथा इसके अन्त समय में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय - कर्मका भी क्षय हो जाता है । ( क्षपक श्रेणि से चढ़नेवाला मुनि ग्यारहवे गुणस्थान में नहीं जाता है; वह दसवें गुणस्थान से बारहवें गुणस्थान में आ जाता है | ) I (१३) सयोग केवलो -चारों घातिया कर्म के नष्ट होते ही यह आत्मा सकल परमात्मा हो जाता है। इस केवली भगवान जब तक योग रहता है तब तक उन्हें सघोग haली कहते है । इनके बिहार भी होता है, दिव्यध्वनि भी खिरती है । तिर्थङ्कर संयोग केवली के समवशरण की रचना होती है, सामान्य सयोग केवली के गन्धकुटी की रचना होती है । इन सबका नाम अर्हन्त परमेष्ठी भी है । अन्तिम अन्तर्मुहूर्त में इन के बादर योग नष्ट होकर सूक्ष्म योग रह जाता है । और अन्तिम समय में यह सूक्ष्म योग भी नष्ट हो जाता है । (१४) अयोग केवली - योग के नष्ट होते ही ये परमात्मा - अयोग केवली हो जाते है । शरीर के क्षेत्र में रहते हुये भी इनके प्रदेशों का शरीर से सम्बन्ध नहीं रहता । इनका काल 'अ इ उ ऋ लृ इन पांच हस्व अक्षरों के उच्चारने के बराबर रहता है । इस गुणस्थान में उपांत्य और अंत्य समय में शेष
SR No.090115
Book TitleChautis Sthan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAadisagarmuni
PublisherUlfatrayji Jain Haryana
Publication Year1968
Total Pages874
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & Karm
File Size16 MB
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