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________________ ( १२६ कोष्टक नम्बर १८ चौतीम स्थान दर्शन मनूष्य गति क्षयोपचाप ये ३ का भंग जानना १८ संज्ञी () कर्म भूमि में मज्ञी . ११वे नम में मनो जानना मश्री (0) का भंग अनुभष । प्रमदिन संनी न अवजो अबस्था जानना (२॥ भोग भूमि में से गुण में ज्ञी जानया संधी जानना १ मंजी जानना (१)कर्म भूमि मे। | १ले २ ४ ६वे नुगण में १मजी जानना | १संगी मानना सूचना -लप्य पर्याप्तक सही जाना मनी जानना | मनुष्य के मध्यति, मनुष्य त्यानुपूर्वी, मनुव्यायु कानो उदय होता ! है, असंजी जीव के मनुष्य गति का नदय न होना है, (देखो गो. फट गा. इसलिय लम्ब्य प्लिक मनुष्य को संजी पंचेन्दिव ही समझना चाहिर परन्तु इन हीबों का अपर्याप्त अवस्था में ही मरमा होता है दुर्भाग्य मनोबल प्राग, प्रगट होन नहीं पानी १.वे गुण में | (6) का भंग प नत् बामना (२) योग भूमि नं ने २ वे मुग में | मनी बानना . संजी जानना । संजी जानना । मारे भंग' अवस्था १-१-१-१-१-१-१ के | पने सपने स्शन के मदारक मजारक, अनाहार सारे भंग अपने अपने स्थान के १ अवस्था 1-1-1-2 भंग
SR No.090115
Book TitleChautis Sthan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAadisagarmuni
PublisherUlfatrayji Jain Haryana
Publication Year1968
Total Pages874
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & Karm
File Size16 MB
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