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________________ द्वेषादिरूप परिणत होकर बद्ध होते हैं, अत एव संसारी है। जैसे जीवात्मा अनादि है और जब पुद्गल भी अनादि है, मेसे ही जीव और कर्म इन दोनोंका वन्व भी अनादि है, क्योंकि जीव और कर्म का ऐसा ही सम्बन्ध अनादि चला आरहा है। यदि जीव पहले से हो कर्मरहित माना जावे तो रागादि विभावरूप अशुद्धि के अभाव उसके बन्ध का अभाव मानना पडेगा और यदि शुद्ध अवस्थामें भी उसके बन्छ माना जावेगा तो फिर जीवको मोक्ष कैसे प्राप्त हो सकेगा। इस तरह मुक्ति का अमात्र मानना पड़ेगा । इसी प्रकार पुद्गल द्रव्यको भी यदि सबंधा सुद्ध मान लिया जाता है की जैसे विनाकारण के आरमा के सहजरूप से ज्ञान प्राप्त होता है, वैसे ही इसमे अकारण क्रोधादि प्राप्त होने लगेगे। और तब बन्धके कारण मूत्र कोचादिक के निर्निमित्त पाये जाने से यातो बन्ध शाश्वत होगा अथवा कोषादि के अभाव माननेपर म्रन्य और गुणका अभाव मानना पड़ेगा। इसलिये जोव और कर्म का अनादि सम्बन्ध है । यही बात पञ्चाध्यायी में पंडित राजमलजी ने निम्नरूप से प्रकट की हैं । बद्धयथा ससंसारी स्यादलब्धस्वरूपवान् । यूनादितोऽभिज्ञयावृतिकर्मभि:। थानादिः जीवात्मा यथावादिश्वपुद्गल । इयोन्योऽप्यनादिः स्यात् संबंधी जोवकर्मणोः ॥ तद्यायदिनिष्कर्मा जीवः प्रागेव तादृशः । बन्धाभावोऽथ शुद्धेऽपि बन्बपचेनिवृत्तिः कथम् ।। अथ चेद्गलः शुद्धः सतः प्राभनादितः । हैतोविना यथाज्ञानं तथा कोषादिरात्मनः ॥ एवं वन्यस्यनित्यत्वं हेतोः सद्भावतोऽथवा । द्रव्याभावो गुणाभावो क्रोधादीनामदर्शनात् ॥ 1 जिस प्रकार कोई किसी का उपकार करता है और दूसरा उसका प्रत्युपकार करता है। वैसेही अशुद्ध रागादि भावों का कारण कर्म है और रागादिभाव उस कर्म के कारण है आदाय यह है कि पूर्वबद्ध कर्मके उदय से रागाविभाव होते हैं और रागादिभावों के निमित्तसे नवीन कर्मों का बन्ध होता है । इन आर्य हुए नवीन कर्मों के परिपाक होने से फिर रागादिभाव होते है और उन रागादिभावों के निभिससे पुनः अन्य नूतन कमौका बन्ध होता है। इस प्रकार जीव और कर्म का सम्बन्ध सन्तान की अपेक्षा अनादि है और इसीका नाम संसार है। वह संसार जीव के सम्यग्दर्शनादि शुद्ध भावों के बिरा दुमच्य है। पंचाध्यायी में निम्नरूप से यह विषय प्रगट किया गया है। जीवस्याद्युगादिभावानां कर्मकारणम् । कर्मणस्तस्य रागादिभाषा: प्रत्युपकारिवत् ।। पूर्वकर्मोदयाद भावोभाना प्रत्यग्र संचयः । तस्य पाकापुनर्भावो भावाद् बन्धः पुनस्ततः 11 एवं सन्त नतोऽनादिः सम्बन्धो जीवकर्मणोः । संसारःसच दुमच्यो बिना सम्यगादिना || न केवलं प्रदेशानांवन्धः स्याद् साक्षस्तद्वयोरिति 11 वद्यपि जीय स्वभावतः अमूर्त और चैतन्य स्वरूप है तथापि उसमें अनादिकालीन ऐसी योग्यता है जिससे वह जड़ मूर्तिक कर्म से बचता है और कर्म भी स्वभावसे ऐसी योग्यताबाला है जिससे जीव से सम्बद्ध होकर जीव की विकृतिमें निमित्त होता है। जीव के अनूर्त ज्ञान गुण का मदिरादिमूर्ती द्रव्य के सम्बन्ध से मूच्छित होना प्रत्यक्ष से देखा जाता है उसी प्रकार सदात्मक अमूर्त जीवको विकृति में निमिश होता है। अमूर्त जीव का सदात्मक मूर्तक्रमं से बन्ध होने में कोई बाधा प्रतीत नहीं होती है, यद्यपि जीव का इस बन्धरूप संसार से उन्मुक्त होना कठिन प्रतीत होता है, परन्तु जीव का कर्मबन्ध
SR No.090115
Book TitleChautis Sthan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAadisagarmuni
PublisherUlfatrayji Jain Haryana
Publication Year1968
Total Pages874
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & Karm
File Size16 MB
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