SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 12
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३ कम्माणं सम्बंधी बंधी उबकट्टणं हवे बढि । संक्रमणमत्थगदी हाणी ओक्कट्टणंणाम || अण्णादयस्तु सहणमुदीरणा अस्थितं । सत्सकालपत्तं उदओहो दित्ति गिट्टिको || उदकमयेचसुविददु कमेणोक्कं । उवसंतंचणिघत्तिं णिकाचिदं होदिकम् | 1 भावार्थ — कर्मद्रव्य का आत्मदेशों के साथ जानावरणादिरूप से सम्बन्ध होना कत्धकरण हैं बद कमों की स्थिति का अनुमान के जढ़ने को कष्ण कहते हैं । बरू प्रकृति की स्थिति और अनुभाग का कम हो जाना अपकर्षण करण है जिस के उदय का अभी समय नहीं आया ऐसी कर्मप्रकृति का अपकर्षण के बलसे उदगावली में प्राप्त करना उदीरणाकरण है। पुद्गल द्रव्य का कर्म रहन सत्करण कहलाता है। कर्मप्रकृति का फल देने का समय प्राप्त हो जाना उदयकरण हैं। जिससे कर्म उदयावली ( उदोरणा) अवस्था को प्राप्त न हो सके वह उपशान्त करण है । जिसमे कर्म प्रकृति उदयावली और सक्रमण अवस्था की न प्राप्त कर सके उसे निवशिकरण कहते हैं जिसे प्रकृति की उदीरणा, संक्रमण, उत्कर्षण और अपकर्षण ये चारों अवस्थायें न हो सके उसे निकाषितकरण कहते हैं । आयुकमे में संक्रमणकरण नहीं होता अर्थात महकादि की आयु बन्धने के अनन्तर वह आयु बदलकर तियंगाय, मनुष्याय और देवा से परिणामों के बदलते पर भी परिवर्तित नहीं हो सकती ही नरकादि की आयु को स्थिति में शुभाशुभ परिणामों से उत्कर्षणकरण और अपकर्षणकरण तथा अन्य सात भी करण आयुकर्म के होते है । बाकी समस्त कर्मों में दशकरण सकते हैं । गुणस्थानो की अपेक्षा प्रथम मिध्यादृष्टि से लेकर अपूर्वकरण अठवें गुणस्थान तक १० करण होते हैं । अपूर्वकरण गुणस्थान से ऊपर राजस्थान तकः ७ करण ही होते हैं। इसके बाद सयोगकेवली तक संक्रमणकरण के बिना ६ करण ह होते हैं और अपन केबी के सत्व और उदय दो ही करण पाये जाते हैं । इस तरह जीव के परिणामों के निमित्त से कर्मों की व्यवस्था होती है । उपसंहार समस्त द्रव्यों में परिणमनशील योग्यता है । इसी मावरूप योग्यता से ही समय द्रध्यों में निरन्तर उत्पाद-व्यय और भौव्य हुआ करता है । इसी स्वाभाविक परिणमन शीलता या भावरूप योग्यता मे प्रत्येक द्रव्य पर्यायान्तर प्राप्त करता है। जोव द्रव्य और पुद्गल द्रव्य में भावरूप योग्यता के साथ हो क्रियारूप योग्यता भी पायी जाती है। जीव प्रदेशों का हलन चलनरूप परिथंद होता है, उसे क्रिया कहते हैं और प्रत्येक वस्तु में होनेवाले प्रवाहरूप परिणमन को भाव कहते हैं। इसीसे तत्वावसूत्र आदि ग्रन्थों में जीव और पुद्गल यो द्रव्यों को सक्रिय मानकर अवशेय धर्म, अवमं, काल और आकाश इन चार roat को faos बताया गया है। क्रियावीशक्ति के कारण ही जीव क्रियावान पुद्गल द्रव्यके निमित्त से आनाददि सत्यरूप से स्वयं परिवर्तित होता है अर्थात समस्त सत्वों में जोव का अन्वय पाया जाता है. इसलिये जीवही उनका आधार है । जीव द्रव्य स्वतः सिद्ध है, मनादि अनंत है, अमूर्ति है और ज्ञानद अनन्त धर्मों का अविष्टि आधार होनेसे अविनाशी है । परन्तु पर्यायार्थिक दृष्टि से जोक मुक्त और अमुक्त दो भागों में विभक्त हैं । जीव अनादिसे ज्ञानावरणादि बाठ कर्मों से मुच्छित होकर आत्मस्वरूप को भूले हुए हैं और राम
SR No.090115
Book TitleChautis Sthan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAadisagarmuni
PublisherUlfatrayji Jain Haryana
Publication Year1968
Total Pages874
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & Karm
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy