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________________ २३ उदयसिहं आबा हा कोडकोडि उहीणं । वासस्यं तपति भागणय सेसट्ठिदीनंच ॥ जिन कर्म प्रकृतियों की एक कोडाकोडी सागर प्रमाण स्थिति बन्धती हैं उन फर्मों की सौ वर्ष प्रमाण आवाधा निर्मित होती है । इस विधि से अंशिक नियमानुसार कर्म स्थिति के प्रमाण से न्यून व afe air fromी जाती है । परन्तु जिन मंत्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति अन्तःकोडाफोडी प्रमाण बन्ती है, उनकी जाबाचा मुहुर्त मात्र होती हैं। समस्त जवन्ध स्थितियों की आवाषा स्थिति से संख्यास गुणी कम होती हैं। आयुकर्म की बाधा के विषय में निम्नप्रकार नियम है। वाणं कोडितिभा गादासंपवद्धयोति हये | आउस य आवाहाण हिदिपडिभागमाऊस्स !! भावार्थ- आप कर्म की आबाधा होडपूर्व के तीसरे भाग से लेकर आसपाढा प्रमाण अर्थात जिस काल से अलकाल नहीं है ऐसे आवली के असंख्यातवें भाव प्रमाण मात्र है। परन्तु बायु कर्म की आवाजा स्थिति के अनुसार भाग की हुई नहीं होती है । उदीरणा अर्थात कर्म स्थिति पूर्ण होने से पहले ही विशुद्धि के बलसे कर्मों को उदयावली में लाकर खिरादेना ऐसी हालत में आयु को छोड़कर सालों कर्मों की बाबाधा एक आदली मात्र है ! बन्धो हुई तद्भव संबन्धी भुज्यमान आयु की उदीरणा हो सकती है । परन्तु आयु की यह उदीरणा केवल कर्मभूमिज मनुष्य और तियंत्र के ही संभावित है । समस्त देव नारकी, मोगभूमिज मनुष्य और वियंच के मुज्यमान आयु की उदीरणा नहीं होती है। कर्मभूमिज मनुष्य और तियंचों को अकाल मरण भी होता है अकाल मृत्यु कुछ विद्वानों का आयु के विषय में ऐसा मत है कि आयु की स्थिति के पूर्ण होने पर ही जीवों का मरण होता हूं किसी भी जीव का बदलीचात वरण ( अकाल मृत्यु ) नहीं होती है । परन्तु जैनागम में अकाल मरण का प्रचुर उल्लेख मिलता है निम्नलिखित वाक्यों से अकाल मरण की पुष्टि होती हैं। सिवेषणरसक्खय-भय- तथ्यगण संकिले से ह उसासाहाराणं णिरोह दो विज माक || गो. कर्म काण्ड गाबा ५७ आयुषमं के निषेक प्रतिसमय समानरूप से उदित होते रहते हैं। आयु के अन्तिम निषेक की स्थिति के पूर्ण होने पर ही उसका उदय हुआ करता है और उसी समय जीव की यह पर्याय समाप्त हो जाती है। मा आयु के समाप्त होते ही परमत्र सम्बन्धी आयु का उदय नारम्भ हो जाता है उस आयु के उदय होते ही नवीन पर्याय प्राप्त हो जाती है । संसारी जीव के प्रत्येक समय कोई न कोई एक आयु का उदय अवश्य हुआ करता है । वशकरण 1 कर्म की सामान्यरूप से १० अवस्थायें मानी गई है । गोम्मटसार कर्मकाण्ड में इन अवस्थाओं को करण कहा गया है। उनका स्वरूप निम्नप्रकार है ।
SR No.090115
Book TitleChautis Sthan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAadisagarmuni
PublisherUlfatrayji Jain Haryana
Publication Year1968
Total Pages874
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & Karm
File Size16 MB
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