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________________ को पुबल विपाकी कहते हैं। जैसा कि निम्न आगम वाक्य से स्पष्ट है। देहादी फासंता पण्णासा णिमिणताव अगलंच । यि र सुह-पतंय दुम अगुरूतिय पागल विवाई। कम काण्ड गा.१७ भरकाय, तिर्षगायु, मनध्यायु और देवाय इन चारों आयु फर्म को प्रकृतियों का बन्न होने पर इनके उदय का फल जीव को भरकादि अवस्था में ही प्राप्त होता है। इसीलिये इन प्रकतिओं को मविपाको संज्ञा है। प्रत्येक आय का उपभोग जीव को जन्मानन्तर उसी जाति की पर्याय में प्राप्त होता है। नरकायु का फल नरकपर्याय में ही प्राप्त हो सकता है। सिर्यन आदि किसी भी अवस्था में नरकाम् का उदय नहा हो सकता है इसी तरह बाकी तीनों आय कर्म की प्रकृतियों का नियम है । करकग-यानपूर्वी, तियं गत्यानपुर्वी, मनुष्यगत्यामुपुर्जी और देवगत्यानपूर्वी नाम कर्म की इन चार प्रकृतियों का परिपाक (उदय) मरने के पश्चात नवीन जन्म धारण करने के लिये परलोक को गमन करते हए जोव के मार्ग में होता है इसीसे इन प्रकृतिका को क्षेत्र विपाकी कहा गया है। जैसा की निम्नलिखित अपवाक्य से सिद्ध है। आऊमी मव निवाई खंत विवाई हय आण तुम्बीओ। अत्तरि अवसेसा जीव विवाई मुणेयवा।। कर्मकाण्ड गा६३८ भावार्थ-मरकादि चार आय मविपाकी है. क्योंकि नारकादि पर्यायों के होने पर हो इन प्रकृतियों का फल प्राप्त होता है और चार आनुपुर्वी क्षेत्र विपाकी हैं । अवशेष रचो ७८ प्रकृतियां जीवविपाकी है । इन अठहत्तर प्रकृतिओं का फल जीवको नारकादि पर्यायों में प्राप्त होता है। वे प्रकृतियां नोचे लिखे अनुसार है। वेणिय-गोद-यादीणे कायण्णातु णामपबडीणं । सत्तावीसं चेदे अत्तरि जीवविवाई।। वेदनीय को २ गोत्रकर्म की २ धातिया कमों को ४७ और नाम कमकी तीर्थकर आदि ससाइस प्रकृतियों का फल जीव ही मनुष्यादि पर्यायों में उपाजित करता है । इस प्रकार कर्म प्रकृतियों का परिपाक उमकी निजकी शक्ति से हुआ करता है। कर्मों का आवाका काल वोग और कषायों से कर्मों का बन्ध होते ही वे कम तुरन्त फल नहीं देते उसके लिये विशेष नियम है । इस नियम को आबाघा काल कहते हैं अधांत अल्पवा अधिक स्थिति बन्ध के अनुसार जल्प अधिक विरहकाल के अनन्तर कर्म उदय में माने लगते हैं। आपापा का निम्न प्रकार लक्षण है। कम्मसकवेणागय दवे य एदि उदय स्वेण । रूवेणू दीरणस्स य आबाहा जाव ताव हो। भावार्थ-कामणि शरीर मामा नामकर्म के उदय से योग द्वारा आत्मा में कम रूपसे प्राप्त हुए पूग द्रव्य जब तक उदय से अथवा उदीरणारूप से परिणत नहीं होते उतने काल को आबाधा कहते हैं। कम प्रतिओंकी भाषा के विषय में आगमोक्त विधि इस प्रकार है।
SR No.090115
Book TitleChautis Sthan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAadisagarmuni
PublisherUlfatrayji Jain Haryana
Publication Year1968
Total Pages874
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & Karm
File Size16 MB
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