SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 14
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ से मुक्त होना असंभव नही है । जइ जीव स्वानुभव के बलसे सम्यग्दर्शनादिरूप से परिणमता है तब संसार को कारणमूत जीय की विभाव परिणति का पूर्ण अभाव हो जाता है और जोव मुक्त होकर सिध्द परमात्मा बन जाता है। इस यन्त्र में कर्मों की कुल १४८ उत्तर प्रकृतियों में गन्ध और उदय के समय शरीर से अचिनाभाव सम्बन्ध रखनेवाले पांव बन्धन और पांच संघात अलग नहीं दिखाये जाले शरीर बन्धन में हो उनका अन्तर्भाव कर लिया जाता है। इसी तरह पुदगल के २० गुणों का अभेद विवक्षासे वर्ष, गन्ध, रस और स्पर्श में हो बस्ताव होना है। इस तरह कुल २६ प्रकृतियों के बटाने पर १२२ प्रकृतियां ही उदय योग्य मानी गई है। और बन्धवम्या में सम्यक्त्व और सम्प्रडिमथ्याव मिथ्यात्व से प्रमक नहीं है, अतः बन्ध योग्य कुल १२० प्रकृति ही मानी गई है। प्रथम मुणस्थान में तीर्थकर ,आहारक शरीर आहारक अंगोपांग इन तीनों प्रकति ओंका बन्ध नहीं होता इसलिमें सिर्फ १७ प्रतियां ही इस गणस्थान में बन्धने योग्य मानी गई है। * चतुर्थ गुणस्थान और पंचमादि समी गुणस्थानी मेंजो १४८ आदि प्रकृतियों को सत्ता दिखाई गई है वह उपशम सभ्यबसपी:ो कर लिया गया। सागिय का विवक्षा में विध्यावादि सात प्रकृतियों का क्षय हो जाने से सात प्रकृतियां कम हो जाती हूँ । -5
SR No.090115
Book TitleChautis Sthan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAadisagarmuni
PublisherUlfatrayji Jain Haryana
Publication Year1968
Total Pages874
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & Karm
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy