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________________ किंचित् प्रासंगिक संस्कृत वाङ्मयमें, आज तक जितने भी छन्दोरचनाविषयक ग्रन्थ प्राप्त हुए हैं, उन सबमें कलिकालसर्वज्ञ आचार्य श्रीहेमचन्द्र सूरि विरचित प्रस्तुत छन्दोऽनुशासन नामक ग्रन्थ सर्वश्रेष्ठ है-ऐसा कथन करनेमें कोई अत्युक्ति नहीं होगी। हेमचन्द्राचार्यकी रचनाओंमें, जिस तरह 'सिद्धहैमशब्दानुशासन' व्याकरणशास्त्रका सबसे अधिक परिपूर्ण ग्रन्थ है और वैसे ही काव्यशास्त्रका लक्षणात्मक 'काव्यानुशासन' परिपूर्ण ग्रन्थ है, उसी तरह यह 'छन्दोऽनुशासन' भी छन्दःशास्त्रविषयक सर्वांग परिपूर्ण ग्रन्थ है।आजतक यह ग्रन्थ अप्रकट रहा। अत इस 'सिंघीजैनग्रन्थमाला' के ४९ वें ग्रन्थरत के रूपमें इसे प्रकट करते हुए हमें हर्षानुभव होना स्वाभाविक है। __कोई ५० वर्ष पहले, इस ग्रन्थका एक नगण्य मुद्रण, खर्गीय शास्त्रोद्धारक आचार्य श्री सागरानन्द सूरिके प्रयत्नसे बंबईमें सेठ देवकरण मूलजीके नामसे प्रकट हुआ था। वह मुद्रण केवल हस्तलिखित पुस्तकानुरूप एक पोथीमात्र था। ग्रन्थके महत्त्वको देखते हुए, यह ग्रन्थ बहुत पहले सुन्दर रूपमें प्रकाशित होना चाहिये था, पर किसी जैन विद्वान्का इस तरफ लक्ष्य नहीं गया। मेरे मनमें, इस ग्रन्थका सुन्दर प्रकाशन करनेकी अभिलाषा, पूनामें सन् १९१९ में मैंने जब 'जैनसाहित्यसंशोधक' नामक संस्थाकी स्थापना की और उसके द्वारा ऐसे महत्त्वके जैन ग्रन्थोंका प्रकाशन करनेकी योजना सोची, तभीसे उत्पन्न हुई थी। संस्कृत भाषा के छन्दोंके विषयमें तो वृत्तरत्नाकर जैसी बहुत सुन्दर ग्रन्थकृतियां सुप्रसिद्ध हैं पर प्राकृत भाषा तथा अपभ्रंश भाषा साहित्यमें प्रयुक्त छन्दोंके विषयका कोई विशिष्ट ग्रन्थ प्रसिद्धिमें नहीं आया था। यद्यपि प्राकृतपिंगल नामसे प्रसिद्ध इस विषयका प्रमाणभूत और सुज्ञात ग्रन्थ प्रकाशित है, पर हेमचन्द्र सूरिकी यह कृति उससे अधिक परिपूर्ण और अधिक विस्तृत है। इसलिये इसको प्रकट करनेकी अभिलाषासे मैंने इसको प्राचीन हस्तलिखित प्रतियां प्राप्त करनेका प्रयत्न चालू किया। उसके बाद जब मेरा प्रधान कार्यक्षेत्र अहमदाबादका 'गुजरात पुरातत्त्व मन्दिर' बना तब मैंने वहींसे इसे प्रकट करनेका आयोजन किया और पाटणके जैन ज्ञान भण्डारोंमेंसे, इसकी कुछ प्राचीन प्रतियां भी प्राप्त की। एक-दो ताडपत्र पर लिखी गई प्रतियां भी ख० परमपूज्य प्रवर्तकजी महाराज श्रीकान्तिविजयजी और उनके शास्त्ररसिक सुशिष्य ख० श्रीचतुरविजयजी महाराजकी कृपासे, मुझे प्राप्त हुई। मैंने उनके आधार पर, इस ग्रन्थका संपादन कार्य प्रारंभ किया बीच मेरा जर्मनी आदि विदेशोंमें जानेका योग बना और वह कार्य स्थगित रहा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.090113
Book TitleChandonushasan
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorH D Velankar
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1961
Total Pages444
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size9 MB
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