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झपटकर मैंने भात का सकोरा उठाया और राजपथ की ओर दौड़ पड़ी। उस निमिष मैं सब कुछ भूल गयी थी। बस, एक ही धुन समायी थी मेरे मन में कि आज निराहार नहीं लौटने दूँगी अपने आराध्य को । जैसे भी मानेंगे, मनाऊँगी। जैसे भी लेंगे, चार ग्रास तो देकर ही रहूँगी उनकी अंजुरी में ।
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द्वार लाँघ रही थी कि पाँव की बेड़ी ने अपनी सीमा जता दी। बन्धन में जकड़ा दूसरा पाँव द्वार के भीतर ही अटक गया। मैं कल्पना के आकाश से यथार्थ की धरती पर आ गिरी। एक ही क्षण में मेरा सपना चूर-चूर हो गया ।
जयकारे की ध्वनि निकटतर आ रही थी,
मन कहता था उड़कर पथ के पास पहुँच जाऊँ ।
पर तन तो बन्धन में था ।
एकाएक दृष्टि ने कहा
'मैं असीम की सीमा देख लेती हूँ,
मुझे जकड़ सके ऐसी बेड़ी का स्रजन ही नहीं हुआ ।' और वह दर्शन की प्यासी दृष्टि,
पलक झपकते पथ के पास पहुँच गयी ।
निकट आते भिक्षु को उसने परिधि में बाँध लिया ।
तब वाणी चिल्लायी
'मैं तीनों लोक नाप सकती हूँ,
मैं क्यों कारा की बन्दिनी रहूँ ?”
और मेरे मुख से हठात् ही निकल पड़ा
हे स्वामिन् !... नमोस्तु ! ... नमोस्तु ! ... नमोस्तु !
द्वार पर महायोगी रुकते से लगे,
मैं आशा से भर उठी,
कि तभी वे कठोर चरण आगे बढ़ते दिखे । मैंने पूरी शक्ति से टेर लगायी
' तुम्हारे लिए भी मैं पतिता हूँ महावीर ? दासी की ओर नहीं निहारोगे, ओ पतितपावन !' कहते-कहते पलकों पर अश्रु झलक आये ।
ये अश्रु बड़े हठीले हैं दीदी ! जब तक कोई पारखी सामने न दिखे,
चन्दना :: 59