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अचानक कक्ष का मुख्य द्वार खुला। स्वामी ही द्वार पर खड़े थे।
अहोभाग्य, तुम आ गये मेरे पितृव्य ! मेरे संरक्षक !
"मैं तुम्हारा अपराधी हूँ पुत्री ! संरक्षक बनकर जैसे तुम्हें यहाँ लाया वैसे तुम्हारी रक्षा नहीं कर सका। हे भगवान ! यह तुम्हारे पैर में बेड़ी ? कितनी क्रूरता हुई है मेरे घर में, मेरी पुत्री के साथ ?"
वे उल्टे पाँव लौट पडे। यमना को बेडी खोलने का आदेश हआ, पर कंचिका तो स्वामिनी के पास थी। वे किसी अन्य गृह में भोजनार्थ गयी थीं।
___ “लौहकर्मी को लाकर बेड़ी कटवाना होगी" कहते हुए स्वामी स्वयं तीव्र गति से बाहर की ओर चले गये। सेवक द्वारा भी लौहकर्मी बुलवाया जा सकता है, यह सोचने का समय उनके पास नहीं था। एक क्षण भी मेरी दयनीय दशा उन्हें सह्य नहीं थी। ममता और दया का सागर लहरा रहा था उनके भीतर।
अनायास कैसा सुयोग बन गया था दीदी ! मुख्य द्वार खुला था। आज कई दिनों के उपरान्त मैं राजपथ की झलक पा रही थी। साधु-चर्या का वही तो समय था। वर्धमान महामुनि भी चर्या के लिए विचर रहे होंगे। यदि इसी मार्ग से निकले तब उनकी एक झलक तो मिल ही जाएगी। मेरी प्यासी आँखें तृप्त हो जाएँगी। मैं कल्पनाओं में खो गयी।
दूर से ‘महावीर की जय' का नाद सुनाई दिया। आज खुल ही गया मेरा भाग्य, आ रहे हैं महामुनि मेरी ही ओर। लगा, दौड़कर राजपथ पर पहुँच जाऊँ। ऐसा अपूर्व अवसर मिला है, इसे खोना नहीं है। कहीं यह क्षण निकल न जाए। परन्तु, क्या खाली हाथ जाऊँगी उनके सामने ? नहीं !... नहीं !!... नहीं !!!... यह नहीं होगा !
58 :: चन्दना