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जकड़ी अब मन मेरे वे!, सुनि सुनि सीख सयानी।
जिनवर चरना वे!, करि करि प्रीति सुज्ञानी ।। करि प्रीति सुज्ञानी! शिवसुखदानी, धन जीतव है पंचदिना। कोटि बरष जीवौ किस लेखे, जिन चरणांबुजभक्ति बिना ।। नर परजाय पाय अति उत्तम, गृह वसि यह लाहा ले रे!। समझ-समझ बोलैं गुरुज्ञानी, सीख सयानी मन मेरे ॥१।।
तू मति तरसै वे!, सम्पति देखि पराई।
बोये लुनि ले वे!, जो निज पूर्व कमाई॥ पूर्व कमाई सम्पति पाई, देखि देखि मति झूर मरै । बोय बैंबूल शूल-तरु भोंदू!, आमनकी क्या आस करै। अब कछु समझ-बूझ नर तासों, ज्यों फिर परभव सुख दरसै। करि निजध्यान दान तप संजम, देखि विभव पर मत तरसै ।।२।।
जो जग दीसै वे!, सुन्दर अरु सुखदाई।
सो सब फलिया वे!, धरमकल्पद्रुम भाई॥ सो सब धर्म कल्पद्रुमके फल, रथ पायक बहु ऋद्धि सही। तेज तुरंग तुंग गज नौ निधि, चौदह रतन छखण्ड मही॥ रति उनहार रूपकी सीमा, सहस छ्यानवै नारि वरै । सो सब जानि धर्मफल भाई! जो जग सुंदर दृष्टि परै॥३॥
ल- असुंदर वे!, कंटक वान घनेरे।
ते रस फलिया वे!, पाप कनक-तरु के रे ॥ ते सब पाप कनकतरुके फल, रोग सोग दुख नित्य नये। कुथित शरीर चीर नहिं तापर, घर घर फिरत फकीर भये॥ भूख प्यास पीडै कन मांग, होत अनादर पग पगमें। ये परतच्छ पाप संचित फल, लगैं असुंदर जे जगमें ॥४॥
भूधर भजन सौरभ